श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी59. भक्तों को भगवान के दर्शन
प्रभु के वरदान माँगने की आज्ञा पर हाथ जोड़े हुए मुरारी ने अविचल श्रीराम-भक्ति की ही प्रार्थना की, जिसे प्रभु ने उनके मस्तक पर अपने पादपद्म रखकर प्रेमपूर्वक प्रदान की। इसके अनन्तर एक-एक करके सभी भक्तों की बारी आयी। अद्वैत, श्रीवास, वासुदेव सभी ने प्रभु से अहैतु की भक्ति की ही प्रार्थना की। हरिदास अपने को बहुत ही दीन-हीन, कंगाल और अधम समझते थे। उन्हें प्रभु के सम्मुख होने में संकोच होता था, इसलिये वे सबसे दूर भक्तों के पीछे छिपे हुए बैठे थे। प्रभु ने गम्भीर-भाव से कहा- ‘हरिदास! हरिदास कहाँ है? उसे हमारे सामने लाओ।’ सभी भक्त चारों ओर हरिदास जी को खोजने लगे, हरिदास जी सबसे पीछे सिकुड़े हुए बैठे थे। भक्तों ने उन्हें प्रभु के सम्मुख होने को कहा- किंतु वे तो प्रेम में बेसुध थे। भक्तों ने उन्हें उठाकर प्रभु के सम्मुख किया। हरिदास को सम्मुख देखकर प्रभु उनसे कहने लगे- ‘हरिदास! तुम अपने को नीच मत समझो। तुम सर्वश्रेष्ठ हो, मेरी तुम्हारी एक ही जाति है। जो तुम्हारा स्मरण-ध्यान करते हैं, वे मानो मेरी ही पूजा करते हैं। मैं सदा ही तुम्हारे साथ रहता हूँ। तुम्हारी पीठ पर जब बेंत पड़ रहे थे, तब भी मैं तुम्हारे साथ ही था, वे बेंत तो मेरी ही पीठ पर पड़ रहे थे। देख लो, मेरी पीठ पर अभी तक निशान बने हुए हैं। सभी भक्तों के कष्टों को मैं अपने ऊपर ही झेलता हूँ। इसलिये भारी-से-भारी कष्ट पड़ने पर भी भक्त दुःखी नहीं होते। कारण कि जो लोग भक्तों को कष्ट देते हैं, वे मानो मुझे ही कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिये अब मैं दुष्टों का संहार न करके उद्धार करूँगा। तुमने मुझसे दुष्टों के संहार की प्रार्थना नहीं की थी। किंतु उनकी बुद्धि-शुद्धि और कल्याण की ही प्रार्थना की थी। इसलिये अब मैं अपने सुमधुर नाम-संकीर्तन द्वारा दुष्टों का उद्धार कराऊँगा। मेरे इस कार्य में जाति-वर्ण या ऊँच-नीच का विचार न रहेगा। मेरे नाम-संकीर्तन से सभी पावन बन सकेंगे। अब तुम अपना अभीष्ट वर मुझसे माँगो!’ हाथ जोड़े हुए दीनभाव से हरिदास जी ने कहा- ‘हे वर देने वालों में श्रेष्ठ! हे दयालो! हे प्रेमावतार! यदि आपकी इच्छा मुझे वरदान ही देने की है, तो मुझे यही वरदान दीजिये कि मैं सदा दीन-हीन, कंगाल तथा निष्किंचन अमानी ही बना रहूँ। मुझे प्रभु के दास होने के अतिरिक्त् अन्य किसी भी प्रकार का अभिमान न हो, मैं सदा वैष्णवों की पदधूलि को अपने मस्तक का परम भूषण ही समझता रहूँ, वैष्णवों के चरणों में मेरी सदा प्रीति बनी रहे। इसी वरदान की मैं प्रभु के निकट से याचना करता हूँ। |