श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी58. सप्तप्रहरिया भाव
अद्वैताचार्य यह प्रार्थना कर ही रहे थे कि धीरे से श्रीवास पण्डित ने माता के कान में कहा- ‘तुम प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम करो।’ माता पुत्र के लिये प्रणाम करने में कुछ हिचकने लगी, तब आचार्य ने जोर देते हुए कहा- ‘माँ! अब तुम निमाई के भाव को भुला दो। इन्हें भगवत-बुद्धि से प्रणाम करो। देर करने का काम नहीं है।’ वृद्ध आचार्य के ऐसा आग्रह करने पर माता ने आगे बढ़कर प्रभु के पादपद्मों में साष्टांग प्रणाम किया और गद्गदकण्ठ से प्रार्थना करने लगी- ‘भगवन! मैं अज्ञ स्त्री तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं जानती कि तुम कौन हो। तुम जो भी हो, मेरे ऊपर कृपा करो।’ माता को प्रणाम करते देखकर प्रभु ने उसके मस्तक पर अपने चरणों को रखते हुए कहा- ‘जाओ, सब वैष्णव-अपराध क्षमा हुए, तुम्हारे ऊपर पूर्ण कृपा हुई।’ माता यह सुनकर आनन्द में विभोर होकर रुदन करने लगी। अब तो सभी भक्त क्रमशः प्रभु की भाँति-भाँति की पूजा करने लगे। कोई धूप चढ़ाता, कोई दीप सामने रखता, कोई फल-फूल सामने रखता और कोई-कोई नवीन-नवीन, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र लाकर प्रभु के शरीर पर धारण कराता। इस प्रकार सभी ने अपनी-अपनी इच्छानुसार प्रभु की पूजा की। अब भोग की बारी आयी। सभी अपनी-अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार विविध प्रकार के व्यंजन, नाना भाँति की मिठाइयाँ और भाँति-भाँति के फलों को सजा-सजाकर प्रभु के भोग के लिये लाये। सभी प्रसन्नतापूर्वक प्रभु के हाथों में भाँति-भाँति की वस्तुएँ देने लगे। कोई तो मिठाई देकर कहता- ‘प्रभु! इसका भोग लगाइये।’ प्रभु उसे प्रेमपूर्वक खा जाते। कोई फल देकर ही प्रार्थना करता- ‘इसे स्वीकार कीजिये।’ प्रभु चुपचाप फलों को ही भक्षण कर जाते। कोई लड्डू, पेड़ा तथा भाँति-भाँति की मिठाई देते, कोई कटोरों में दूध लेकर ही प्रार्थना करता- ‘प्रभो! इसे आरोगिये।’ प्रभु इसे भी पी जाते। उस समय जिसने जो भी वस्तु प्रेमपूर्वक दी, प्रभु ने उसे ही भक्षण कर लिया। किसी की वस्तु को अस्वीकार नहीं किया। भला अस्वीकार कर भी कैसे सकते थे? उनकी तो प्रतिज्ञा है कि ‘यदि कोई भक्ति से मुझे फल-फूल या पत्ते भी देता है, तो उन फूल-पत्तों को भी मैं खुश होकर खा जाता हूँ।’ फिर भक्तों के प्रेम से दिये हुए नैवेद्य को वह किस प्रकार छोड़ सकते थे। उस दिन प्रभु ने कितना खाया और भक्तों ने कितना खिलाया इसका अनुमान कोई भी नहीं कर सकता। सबके प्रेम-प्रसाद को पाने के अनन्तर श्रीवास पण्डित ने अपने काँपते हुए हाथों से सुवासित ताम्बूल प्रभु के अर्पण किया। प्रभु प्रेमपूर्वक ताम्बूल चर्बण करने लगे। सभी बारी-बारी से ताम्बूल भेंट करने लगे। प्रभु उन्हें स्पर्श करके भक्तों को प्रसाद के रूप में देते जाते थे। प्रभुदत्त पान को पाकर सभी भक्त अपने भाग्य की सराहना करने लगे। |