श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी58. सप्तप्रहरिया भाव
श्रीवास तो बेसुध थे। उनकी दशा ऐसी हो गयी थी मानो किसी जन्म के दरिद्री को पारसमणि मिल गयी हो। उनका हृदय तड़ रहा था कि प्रभु की इस अलौकिक छवि के दर्शन किसे-किसे करा दूँ? जब कोई प्रिय वस्तु देखने को मिल जाती है, तब हृदय में यह इच्छा स्वाभाविक ही उत्पन्न होती है, इसके दर्शन अपने सभी प्रियजनों को करा दूँ। यह सोचकर उन्होंने अद्वैताचार्यजी के कान में कहा- ‘शचीमाता मुझे बहुत चिढ़ाया करती हैं। वे मुझसे बार-बार कहती हैं कि तुम सभी ने मिलकर मेरे निमाई को बिगाड़ दिया। पहले वह कितना सीधा-सादा था, अब तुम्हीं सब न जाने उसे क्या-क्या सिखा देते हो? आज माता को लाकर दिखाऊँ कि देख तेरा निमाई असल में यह है। यह तेरा पुत्र नहीं है, किंतु सम्पूर्ण जगत का पिता है। यदि आपकी अनुमति हो तो मैं शचीमाता को बुला लाऊँ।’ आचार्य ने श्रीवास की बात का समर्थन करते हुए कहा- ‘हाँ, हाँ, अवश्य। शचीमाता को जरूर दर्शन कराना चाहिये।’ इतना सुनते ही श्रीवास पण्डित जल्दी से दौड़कर शचीमाता को बुला लाये। शचीमाता को देखते ही अद्वैताचार्य कहने लगे- ‘माता! यह सामने देखो, जिन्हें तुम अपना बताती थी, वे अब तुम्हारे पुत्र नहीं रहे। अब तुम इनके दर्शन करो और अपने जीवन को सफल बनाओ।’ माता भौचक्की-सी चुपचाप खड़ी ही रही। उसे कुछ सूझा ही नहीं कि मुझे क्या करना चाहिये। श्रीवास पण्डित ने माता की ऐसी दशा देखकर दीन-भाव से प्रार्थना की- ‘प्रभो! ये जगन्माता शची देवी सामने खड़ी हैं। इन्हें आपकी माता होने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इनके ऊपर कृपा होनी चाहिये। इन्हें आपके असली स्वरूप के दर्शन हों यही हमारी प्रार्थना है।’ प्रभु ने हुँकार देते हुए कहा- ‘शचीमाता के ऊपर कृपा नहीं हो सकती। यह सदा वैष्णवों को बुरा बताया करती हैं कि सभी वैष्णवों ने मिलकर मेरे निमाई को बरबाद कर दिया।’ प्रभु की ऐसी बात सुनकर अद्वैताचार्य ने कहा- ‘प्रभो! माता का आपके प्रति वात्सल्य-भाव है। वह जो भी कुछ कहती है वात्सल्य स्नेह के वशीभूत होकर ही कहती है। वैष्णवों के प्रति इसके हृदय में द्वेष के भाव नहीं हैं। इसकी उपासना वात्सल्य-भाव की ही है। इसके ऊपर अवश्य कृपा होनी चाहिये।’ |