श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी57. हरिदासजी द्वारा नाम-माहात्म्य
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। सभी-के-सभी लोग सम्भ्रम-भाव से इन्हीं की ओर एकटक-भाव से देख रहे थे। इनके निरन्तर के नाम-जप को देखकर उन दोनों जमींदार भाइयों को इनके प्रति स्वाभाविक ही बड़ी भारी श्रद्धा हो गयी। उनके दरबार में बहुत-से और भी पण्डित बैठे हुए थे। भगवन्नाम-जप का प्रसंग आने पर पण्डितों ने नम्रता के साथ पूछा- ‘भगवन्नाम- जप का अन्तिम फल क्या है? इससे किस प्रकार की सुख की प्राप्ति होती है? क्या हरि-नाम-स्मरण से सभी दुःखों का अत्यन्ताभाव हो सकता है? क्या केवल नाम-जप से ही मोक्ष मिल सकता है?’ हरिदास जी ने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़े हुए पण्डितों को उत्तर दिया- ‘महानुभावो! आप शास्त्रज्ञ हैं, धर्म के मर्म को भलीभाँति जानते हैं। आपने सभी ग्रन्थों तथा वैष्णव-शास्त्रों का अध्ययन किया है। मैं आपके सामने कह ही क्या सकता हूँ, किंतु भगवन्नाम के माहात्म्य से आत्मा में सुख मिलता है, इसीलिये कुछ कहने का साहस करता हूँ। भगवन्नाम का सर्वश्रेष्ठ फल यही है कि इसके जप से हृदय में एक प्रकार की अपूर्व प्रसन्नता प्रकट होती है, उस प्रसन्नताजन्य सुख का आस्वादन करते रहना ही भगवन्नाम का सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम फल है। भगवन्नाम का जप करने वाला साधक मोक्ष या दुःखों के अत्यन्ताभाव की इच्छा ही नहीं करता। वह सगुण-निर्गुण दोनों के ही चक्कर से दूर रहता है। उसका तो अन्तिम ध्येय भगवन्नाम का जप ही होता है। कहीं भी रहें, कैसी भी परिस्थिति में रहें, कोई भी योनि मिले, निरन्तर भगवन्नाम का स्मरण बना रहे। क्षणभर को भी भगवन्नाम से पृथक न हो। यही नाम-जप के साधक का अन्तिम लक्ष्य है। भगवन्नाम के साधक का साध्य और साधन भगवन्नाम ही है। भगवन्नाम से वह किसी अन्य प्रकार के फल की इच्छा नहीं रखता। मैं तो इतना ही जानता हूँ, इससे अधिक यदि आप कुछ और जानते हों तो मुझे बतावें।’ |