श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी57. हरिदासजी द्वारा नाम-माहात्म्य
इनके ऐसे निश्चय को सुनकर लोगों को बड़ा भारी आनन्द हुआ और सभी अपने-अपने स्थानों को चले गये। दूसरे दिन बहुत-से भक्त एकत्रित होकर हरिदास जी के समीप श्रीकृष्ण-कीर्तन कर रहे थे कि उसी समय सब लोगों को उस अँधेरे स्थान में बड़ा भारी प्रकाश-सा मालूम पड़ा। सभी भक्त आश्चर्य के साथ उस प्रकाश की ओर देखने लगे। सभी ने देखा कि एक चित्र-विचित्र रंगों का बड़ा भारी सर्प वहाँ से निकलकर गंगाजी की ओर जा रहा है। उसके मस्तक पर एक बड़ी-सी मणि जड़ी हुई है। उसी का इतना तेज प्रकाश है। सभी ने उस भयंकर सर्प को देखकर आश्चर्य प्रकट किया। सर्प धीरे-धीरे गंगा जी के किनारे-किनारे बहुत दूर चला गया। उस दिन से आश्रम में आने वाले किसी भी दर्शनार्थी के शरीर में खुजली नहीं हुई। भक्तों का ऐसा ही प्रभाव होता है, उनके प्रभाव के सामने अजगर तो क्या, कालकूट को हजम करने वाले देवाधिदेव महादेव जी तक भी भय खाते हैं। यह सब भगवान की भक्ति का ही माहात्म्य है। इस प्रकार महात्मा हरिदास जी फुलिया में रहते हुए श्रीभागीरथी का सेवन करते हुए आचार्य अद्वैत के सत्संग का निरन्तर आनन्द लूटते रहे। अद्वैताचार्य ही इनके गुरु, पिता, आश्रयदाता अथवा सर्वस्व थे। उनके ऊपर इनकी बड़ी भारी भक्ति थी। जिस दिन महाप्रभु का जन्म नवद्वीप में हुआ था, उस दिन आचार्य के साथ ये आनन्द में विभोर होकर नृत्य कर रहे थे। आचार्य का कहना था कि ये जगन्नाथतनय कालान्तर में गौरांग रूप से जनोद्धार तथा सम्पूर्ण देश में श्रीकृष्ण-कीर्तन का प्रचार करेंगे। आचार्य के वचनों पर हरिदास जी को पूर्ण विश्वास था, इसलिये वे भी गौरांग के प्रकाश की प्रतीक्षा में निरन्तर श्रीकृष्ण-संकीर्तन करते हुए कालयापन करने लगे। |