श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी56. हरिदास की नाम-निष्ठा
वहीं पर एक मानलोलुप ब्राह्मण भी बैठा था, जब उसने देखा कि मूर्च्छित होकर गिरने से ही लोग इतना आदर करते हैं, तब मैं इस अवसर को हाथ से क्यों जाने दूँ? यह सोचकर जब वह डंक फिर नाचने लगा, तब यह भी झूठ-मूठ बहाना बनाकर पृथ्वी पर अचेत होकर गिर पड़ा। डंक तो सब जानता था। इसके गिरते ही वह इसे जोरों से पीटने लगा। मार के सामने तो भूत भी भागते हैं, फिर यह तो दम्भी था, जल्दी ही मार न सह सकने के कारण वहाँ से भाग लिया। उस धनी पुरुष ने तथा अन्य उपस्थित लोगों ने इसका कारण पूछा कि ‘हरिदास की तुमने इतनी स्तुति क्यों की और वैसा ही भाव आने पर इस ब्राह्मण को तुमने क्यों मारा?’ सबके पूछने पर डंक ने कहा- ‘हरिदास परम भगवद्भक्त हैं। उनके शरीर में सचमुच सात्त्विक भावों का उदय हुआ था, यह दम्भी था, केवल अपनी प्रशंसा के निमित्त इसने ऐसा ढोंग बनाया था, इसीलिये मैंने उनकी स्तुति की और इसे पीटा। ढोंग सब जगह थोड़े ही चलता है, कभी-कभी मूर्खों में ही काम दे जाता है, पर कलई खुलने पर वहाँ भी उसका भण्डाफोड़ हो जाता है। हरिदास सचमुच में रत्न हैं। उनके रहने से यह सम्पूर्ण देश पवित्र हो रहा है। आप लोग बड़े भाग्यवान हैं, जो ऐसे महापुरुष के नित्यप्रति दर्शन पाते हैं।’ डंक की बात सुनकर सभी को परम प्रसन्नता हुई और वे सभी लोग हरिदासजी के भक्ति-भाव की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। वह ब्राह्मण तो इतना लज्जित हुआ कि लोगों को मुँह दिखाने में भी उसे लज्जा होने लगी। सच है, बनावटी की ऐसी ही दुर्दशा होती है। किसी ने ठीक ही कहा है- देखा देखी साधे जोग। छीजै काया बाढ़ै रोग।। हरिदास जी की निष्ठा अलौकिक है। उसका विचार करना मनुष्यबुद्धि के बाहर की बात है। |