श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी56. हरिदास की नाम-निष्ठा
जिस क्षण भगवन्नाम का स्मरण न हो, वही सबसे बड़ा दुःख है और भगवन्नाम का स्मरण होता रहे तो शरीर को चाहे कितना भी क्लेश हो उसे परम सुख ही समझना चाहिये।’ इनके ऐसे उत्तर से सभी ब्राह्मण परम सन्तुष्ट हुए और इनकी आज्ञा लेकर अपने-अपने घरों को चले गये। इस प्रकार हरिदास जी भगवती भागीरथी के तट पर फुलियाग्राम के ही समीप रहने लगे। वहाँ उन्हें सब प्रकार की सुविधाएँ थीं। शान्तिपुर में अद्वैताचार्य जी के समीप वे प्रायः नित्य ही जाते। आचार्य इन्हें पुत्र की भाँति प्यार करते और ये भी उन्हें पिता से बढ़कर मानते। फुलिया के सभी ब्राह्मण, वैष्णव तथा धनी-मानी पुरुष इनका आदर-सत्कार करते थे। ये मुख से सदा श्रीहरि के मधुर नामों का कीर्तन करते रहते। निरन्तर के कीर्तन के प्रभाव से इनके रोम-रोम से हरि-ध्वनि-सी सुनायी देने लगी। भगवान की लीलाओं को सुनते ही ये मूर्च्छित हो जाते और एक साथ ही इनके शरीर में सभी सात्त्विक भाव उदय हो उठते। एक दिन की बात है कि ये अपनी कुटिया से कहीं जा रहे थे। रास्ते में इन्हें मजीरा, मृदंग की आवाज सुनायी दी। श्रीकृष्ण का कीर्तन समझकर ये उसी ओर चल पड़े। उस समय ‘डंक’ नाम की जाति के लोग मृदंग, मजीरा बजाकर नृत्य किया करते थे और नृत्य के साथ में हरिलीलाओं का कीर्तन किया करते थे। उस समय भी कोई डंक नृत्य कर रहा था। जब हरिदास जी पहुँचे तब डंक भगवान की कालियदमन की लीला के सम्बन्ध के पद गा रहा था। डंक का स्वर कोमल था, नृत्य में वह प्रवीण था और गाने का उसे अच्छा अभ्यास था। वह बड़े ही लय से यशोदा और नन्द के विलाप का वर्णन कर रहा था। ‘भगवान गेंद के बहाने से कालियदह में कूद पड़े हैं,’ इस बात को सुनकर नन्द-यशोदा तथा सभी व्रजवासी वहाँ आ गये हैं। बालकृष्ण अपने कोमल चरणकमलों को कालियनाग के फणों के ऊपर रखे हुए उसी अपनी ललित त्रिभंगी गति से खड़े हुए मुरली बजा रहे हैं। नाग जोरों से फुंकार मारता है, उसकी फुंकार के साथ मुरारी धीरे-धीरे नृत्य करते हैं। यशोदा ऐसी दशा देखकर बिलबिला रही हैं। वह चारों ओर लोगों की ओर कातर दृष्टि से देख रही हैं कि मेरे बनवारी को कोई कालिय के मुख से छुड़ा ले। नन्दबाबा अलग आँसू बहा रहे हैं।’ इस भाव को सुनते-सुनते हरिदास जी मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। डंक इनके सात्त्विक भावों को देखकर समझ गया कि ये कोई महापुरुष हैं, उसने नृत्य बंद कर दिया और इनकी पद-धूलि को मस्तक पर चढ़ाकर इनकी स्तुति करने लगा। बहुत-से उपस्थित भक्तों ने हरिदासजी के पैरों के नीचे की धूलि को लेकर सिर पर चढ़ाया और उसे बाँधकर अपने घर को ले गये। |