श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी53. निमाई और निताई की प्रेम-लीला
एक दिन प्रभु ने श्रीवास पण्डित की परीक्षा करने के निमित्त तथा यह जानने के लिये कि श्रीवास का नित्यानन्द जी के प्रति कितना हार्दिक स्नेह है, उन्हें एकान्त में ले जाकर पूछने लगे- 'पण्डित जी! इन अवधूत नित्यानन्द जी के कुल-गोत्र तथा जाति आदि का कुछ भी पता नहीं। इस अज्ञातकुलशील अवधूत को आपने अपने घर में स्थान देकर कुछ उचित काम नहीं किया। आप इन्हें पुत्र की तरह प्यार करते हैं। कौन जाने ये कैसे हैं? इसलिये आपको इन्हें अपने घर में पुत्र की तरह नहीं रखना चाहिये। ये साधुओं की तरह गंगा-किनारे या कहीं घाट पर रहें और माँगे खायँ। साधु को किसी के घर रहने से क्या काम? इस विषय में आपके क्या विचार हैं? क्या आप मुझसे सहमत हैं।' प्रभु की ऐसी बात सुनकर गद्गद-कण्ठ से श्रीवास पण्डित ने अत्यन्त ही दीनता के साथ कहा- 'प्रभो! आपको हमारी इस प्रकार से परीक्षा करना ठीक नहीं। हम संसारी वासनाओं में आबद्ध पामर प्राणी भला प्रभु की परीक्षाओं में उत्तीर्ण ही कैसे हो सकते हैं? जब तक प्रभु स्वयं कृपा न करें, तब तक तो हम सदा अनुत्तीर्ण ही होते रहेंगे। मैं यह खूब जानता हूँ कि नित्यानन्द जी प्रभु के बाह्य प्राण ही नहीं, किंतु अभिन्न विग्रह भी हैं। प्रभु उन्हें भिन्न-से प्रतीत होने पर भी भिन्न नहीं समझते। जो प्रभु के इतने प्रिय हैं वे नित्यानन्द जी यदि शराब पीकर अगम्यागमन भी करें और मुझे धर्म-भ्रष्ट भी कर दें तब भी मुझे उनके प्रति घृणा नहीं होगी। नित्यानन्द जी को मैं प्रभु का ही स्वरूप समझता हूँ।' इतना कहकर श्रीवास पण्डित प्रभु के पादपद्मों को पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगे। प्रभु ने उन्हें अपने कोमल करों से उठाया और प्रेमालिंगन करते हुए कहने लगे- 'श्रीवास! तुमने ऐसा उत्तर देकर सचमुच में मुझे खरीद लिया। इस उत्तर से मैं तुम्हारा क्रीतदास बन गया। मैं तुमसे अत्यन्त ही संतुष्ट हुआ। मेरा यह आशीर्वाद है कि किसी भी दशा में तुम्हें किसी आवश्यकीय वस्तु का घाटा नहीं होगा और तुम्हारे घर के कुत्ते तक को श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति हो सकेगी। तुम्हारा मेरे प्रति ऐसा अनन्य अनुराग है, इसका पता मुझे आज ही चला।' इतना कहकर प्रभु अपने घर को चले गये। एक दिन प्रभु ने शचीमाता से कहा- 'माँ! मेरी इच्छा है आज नित्यानन्द जी को अपने घर भोजन करावें। तू आज अपने हाथों से बढ़िया-बढ़िया भोजन बनावे और हम दोनों भाइयों को चौके में बिठाकर स्वयं परोसकर खिलावे, यही मेरी इच्छा है।' |