श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी51. अद्वैताचार्य को श्यामसुन्दररूप के दर्शन
कुछ बनावटी गम्भीरता धारण करते हुए तथा अपने चारों ओर देखते हुए आचार्य ने कहा-‘यहाँ रघुनाथ तो दृष्टिगोचर होते नहीं, हाँ, यदुनाथ अवश्य विराजमान हैं।’ प्रभु इस उत्तर को सुनकर कुछ लज्जित-से हुए। बात को उड़ाने के निमित्त कहने लगे- ‘देखिये, हम तो चिरकाल से आशा लगाये बैठे थे कि हम सभी लोग आपकी छत्रछाया में रहकर श्रीकृष्ण का कीर्तन करते, किंतु आप शान्तिपुर जा विराजे, ऐसा हम लोगों से क्या अपराध बन गया है?’ अद्वैताचार्य इसका कुछ उत्तर देने नहीं पाये थे कि बीच में ही श्रीवास पण्डित बोल उठे- ‘अद्वैताचार्य का नाम ही अद्वैत है। इसीलिये वे शान्तिपुर में निवास कर रहे हैं। अब आपका आविर्भाव नवद्वीपरूपी नवधाभक्ति के पीठ में हुआ। उसमें विराजमान होकर नित्यानन्द उसका रसास्वादन कर रहे हैं। अद्वैत भी शान्तिपुर छोड़कर इस नित्यानन्दपूर्णपीठ में आकर गौरगुणगान द्वारा अपने को नित्यानन्दमय बनाना चाहते हैं। अभी ये द्वैत-अद्वैत के दुविधा में हैं।’ इस गूढ़ उत्तर का मर्म समझकर हँसते हुए आचार्य कहने लगे- ‘जहाँ पर श्रीवास’ हैं, वहाँ पर लोगों की क्या कमी है। श्रीके वास में आकर्षण ही ऐसा है कि हम- जैसे सैकड़ों मनुष्य उनके प्रभाव से खिंचे चले आवेंगे।’ श्रीवास पण्डित इस गूढ़ोक्ति से बड़े प्रसन्न हुए, उसे प्रभु के ऊपर घटाते हुए कहने लगे- ‘जब लक्ष्मी देवी थीं, तब थीं, अब तो वे यहाँ वास नहीं करतीं, अब तो वे नवद्वीप से अन्तर्धान हो गयीं। (गौरांग महाप्रभु की पहली पत्नी का नाम ‘लक्ष्मी’ था। ‘श्री’ के माने लक्ष्मी लगाकर श्रीवास पण्डित ने कहा- अब यहाँ श्री का वास नहीं है।) प्रभु ने जब देखा श्रीवास हमारे ऊपर घटाने लगे हैं तब आपने जल्दी से कहा- ‘पण्डित जी! यह आप कैसी बात कर रहे हैं? श्री के माने है ‘भक्त’। जहाँ पर आप-जैसे भक्त विराजमान हैं वहाँ श्री का वास अवश्य ही होना चाहिये, भला ऐसे स्थान को छोड़कर ‘भक्ति’ या ‘श्री’ कहीं जा सकती हैं?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अद्वैताचार्य की पत्नी का नाम सीतादेवी था, प्रभु का लक्ष्य उन्हीं की ओर था।