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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
50. अद्वैताचार्य के ऊपर कृपा
प्रभु का आदेश पाते ही, आचार्य दोनों हाथों को ऊपर उठाकर प्रेम के साथ संकीर्तन करने लगे। सभी भक्त अपने-अपने वाद्यों को बजा-बजाकर आचार्य के साथ संकीर्तन करने में निमग्न हो गये। आचार्य प्रेम के आवेश में जोरों से नृत्य कर रहे थे, उन्हें शरीर की तनिक भी सुध-बुध नहीं थी। वे प्रेम में इतने मतवाले बने हुए थे कि कहीं पैर रखते थे और कहीं जाकर पैर पड़ते थे। धीरे-धीरे स्वेद, कम्प, अश्रु, स्वरभंग तथा विकृति आदि सभी संकीर्तन के सात्त्विक भावों का अद्वैताचार्य के शरीर में उदय होने लगा। भक्त भी अपने-आपको भूलकर अद्वैताचार्य की ताल के साथ अपना ताल-स्वरमिला रहे थे, इस प्रकार उस दिन के संकीर्तन में सभी को अपूर्व आनन्द आया। आज तक कभी भी इतना आनन्द संकीर्तन में नहीं आया था। सभी भक्त इस बात का अनुभव करने लगे कि आज का संकीर्तन सर्वश्रेष्ठ रहा। क्यों न हो, जहाँ अद्वैत तथा निमाई, निताई ये तीनों ही प्रेम के मतवाले एकत्रित हो गये, वहाँ अद्वितीय तथा अलौकिक आनन्द आना ही चाहिये। बहुत रात्रि बीतने पर संकीर्तन समाप्त हुआ और सभी भक्त प्रेम में छके हुए-से अपने-अपने घरों को चले गये।
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