श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी49. व्यासपूजा
प्रभु के कोमल कर स्पर्श से निताई की मूर्च्छा भंग हुई, वे अब कुछ-कुछ प्रकृतिस्थ हुए। नित्यानन्द जी को होश में देखकर प्रभु भक्तों से कहने लगे- ‘व्यासपूजा तो हो चुकी, अब सभी मिलकर एक बार सुमधुर स्वर से श्रीकृष्ण-संकीर्तन और कर लो।’ प्रभु की आज्ञा पाते ही पखावज बजने लगी, सभी भक्त हाथों में मजीरा लेकर बड़े ही प्रेम से कीर्तन करने लगे। सभी प्रेम में विह्वल होकर एक साथ- - इस सुमधुर संकीर्तन को करने लगे। संकीर्तन की सुमधुर ध्वनि से श्रीवास पण्डित का घर गूँजने लगा। संकीर्तन की आवाज सुनकर बहुत-से दर्शनार्थी द्वार पर आकर एकत्रित हो गये, किंतु घर का दरवाजा तो बंद था, वे बाहर खड़े-ही खड़े संकीर्तन का आनन्द लूटने लगे। इस प्रकार संकीर्तन के आनन्द में किसी को समय का ज्ञान ही न रहा। दिन डूब गया। तब प्रभु ने संकीर्तन बंद कर देने की आज्ञा दी और श्रीवास पण्डित से कहा- ‘प्रसाद के सम्पूर्ण सामान को यहाँ ले आओ।’ प्रभु की आज्ञा पाकर श्रीवास पण्डित प्रसाद के सम्पूर्ण थालों को प्रभु के समीप उठा लाये। प्रभु ने अपने हाथों से सभी उपस्थित भक्तों को प्रसाद वितरण किया। उस महाप्रसाद को पाते हुए सभी भक्त अपने-अपने घरों को चले गये। इस प्रकार नित्यानन्द जी श्रीवास पण्डित के ही घर में रहने लगे। श्रीवास पण्डित और उनकी धर्मपत्नी मालिनी देवी उन्हें अपने सगे पुत्र की भाँति प्यार करते थे। नित्यानन्द जी को अपने माता-पिता को छोड़े आज लगभग बीस वर्ष हो गये। बीस वर्षों से ये इसी प्रकार देश-विदेशों में घूमते रहे। बीस वर्षों के बाद अब फिर से मातृ-पितृ-सुख को पाकर ये परम प्रसन्न हुए। गौरांग भी इनका हृदय से बड़ा आदर करते थे, वे इन्हें अपने बड़े भाई से भी बढ़कर मानते थे, तभी तो यथार्थ में प्रेम होता है। दोनों ही ओर से सत्कार के भाव हो तभी अभिन्नता होती है। शिष्य अपने गुरु को सर्वस्व समझे और गुरु शिष्य को चाकर न समझकर अपना अन्तरंग सखा समझे, तभी दृढ़ प्रेम हो सकता है। गुरु अपने गुरुपने में ही बने रहें और शिष्य को अपना सेवक अथवा दास ही समझते रहें, इधर शिष्य अनिच्छापूर्वक कर्तव्य-सा समझकर उनकी सेवा-शुश्रूषा करता रहे, तो उन दोनों में यथार्थ प्रेम नहीं होता। गुरु-शिष्य का बर्ताव तो ऐसा ही होना चाहिये जैसा भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का था अथवा जनक और शुकदेव जी का जैसा शास्त्रों में सुना जाता है। नित्यानन्द जी गौरांग को अपना सर्वस्व ही समझते थे, किंतु गौरांग उनका सदा पूज्य की ही भाँति आदर-सत्कार करते थे, यही तो इन महापुरुषों की विशेषता थी। नित्यानन्द जी का स्वभाव बड़ा चंचल था। वे कभी-कभी स्वयं अपने हाथों से भोजन ही नहीं करते, तब मालिनी देवी उन्हें अपने हाथों से छोटे बच्चों की तरह खिलातीं। कभी-कभी ये उनके सूखे स्तनों को अपने मुख में देकर उन्हें बालकों की भाँति पीने लगते। कभी उनकी गोद में शिशुओं की तरह क्रीड़ा करते। इस प्रकार ये श्रीवास और उनकी पत्नी मालिनी देवी को वात्सल्य-सुख का आनन्द देते हुए उनके घर में सुखपूर्वक रहने लगे। |