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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
48. स्नेहाकर्षण
इन लोगों के मुख से इस बात को सुनकर प्रभु कुछ मुसकराये और सबकी ओर देखते हुए बोले- ‘मुझे रात्रि में स्वप्न हुआ है कि वे महापुरुष जरूर यहाँ आ गये हैं और लोगों से मेरे घर का पता पूछ रहे हैं। अच्छा, एक काम करो, हम सभी लोग मिलकर उन्हें ढूँढ़ने चलें।’ यह कहकर प्रभु उसी समय उठाकर चल दिये। उनके पीछे गदाधर, श्रीवासादि भक्तगण भी हो लिये। प्रभु उठकर सीधे पं. नन्दनाचार्य के घर की ओर चल पड़े। आचार्य के घर पहुँचने पर भक्तों ने देखा कि एक दिव्यकान्तियुक्त महापुरुष अपने अमित तेज से सम्पूर्ण घर को आलोकमय बनाये हुए पद्मासन से विराजमान हैं। उनके मुखमण्डल की तेजोमय किरणों में ग्रीष्म के प्रभाकर की किरणों की भाँति प्रखर प्रचण्डता नहीं थी, किंतु शरद-चन्द्र की किरणों के समान शीतलता, शान्तता और मनोहरता मिली हुई थी। गौरांग ने भक्तों के सहित उन महापुरुष की चरण-वन्दना की और एक ओर चुपचाप बैठ गये। किसी ने किसी से कुछ भी बातचीत नहीं की। नित्यानन्द प्रभु अनिमेष-दृष्टि से गौरांग के मुख-चन्द्र की ओर निहार रहे थे। भक्तों ने देखा, उनकी पलकों का गिरना एकदम बंद हो गया है। सभी स्थिर भाव से मन्त्रमुग्ध की भाँति नित्यानन्द प्रभु की ओर देख रहे थे। प्रभु ने अपने मन में सोचा- ‘भक्तों को नित्यानन्द जी की महिमा दिखानी चाहिये। इन्हें कोई प्रेमप्रसंग सुनाना चाहिये, जिसके श्रवण से इनके शरीर में सात्त्विक भावों का उद्दीपन हो। इनके भावों के उदय होने से ही भक्त इनके मनोगत भावों को समझ सकेंगे।’ यह सोचकर प्रभु ने श्रीवास पण्डित को कोई स्तुति-श्लोक पढ़ने के लिये धीरे से संकेत किया। प्रभु के मनोगत भाव को समझकर श्रीवास इस श्लोक को पढ़ने लगे-
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।
रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्गोपवृन्दै-
र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः।।[1]
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के इस श्लोक में कितना माधुर्य है, इसे तो संस्कृत-साहित्यानुरागी सहृदय रसिक भक्त ही अनुभव कर सकते हैं, इसका भाव शब्दों में व्यक्त किया ही नहीं जा सकता। व्रजमण्डल के भक्तगण तो इसी श्लोक को श्रीमद्भागवत के प्रचार में मूल कारण बताते हैं। बात यही थी कि भगवान शुकदेवजी तो बाल्यकाल से ही विरक्त थे। वे अपने पिता भगवान व्यासदेवजी के पास न आकर घोर जंगलों में ही अवधूत-वेश में विचरण करते थे। व्यासदेव ने उसी समय श्रीमद्भागवत की रचना की थी। उनकी इच्छा थी कि शुकदेव जी इसे पढ़ें, किंतु वे जितनी देर में गौ दुही जा सकती है, उतनी देर से अधिक कहीं ठहरते ही नहीं थे। फिर अठारह हजार श्लोक वाली श्रीमद्भागवत को वे किस प्रकार पढ़ सकते थे, इसलिये व्यासदेव जी की इच्छा मन की मन ही में रह गयी।
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