श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी47. निमाई के भाई निताई
पत्नी की अनुमति पाकर हाड़ाई पण्डित ने अपने प्राणों से भी प्यारे प्रिय पुत्र को रोते-रोते संन्यासी के हाथों में सौंप दिया। धर्मनिष्ठ नित्यानन्द जी ने भी इसमें कुछ भी आपत्ति नहीं की। वे प्रसन्नतापूर्वक संन्यासी के साथ हो लिये। उन्होंने पीछे फिरकर फिर अपने माता-पिता तथा कुटुम्बियों की ओर नहीं देखा। संन्यासी जी के साथ नित्यानन्द जी ने भारतवर्ष के प्रायः सभी मुख्य-मुख्य तीर्थों की यात्रा की। वे गया, काशी, प्रयाग, मथुरा, द्वारका, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी, रंगनाथ, सेतुबन्ध रामेश्वर, जगन्नाथपुरी आदि तीर्थों में गये। इसी तीर्थयात्रा-भ्रमण में इनका श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी के साथ साक्षात्कार हुआ और उनके द्वारा श्रीकृष्ण-भक्ति प्राप्त करके ये प्रेम में विह्वल हो गये। उनसे विदा होकर ये व्रज में आये। इनके साथ के संन्यासी कहाँ रह गये, इसका कोई ठीक-ठीक पता नहीं चलता। व्रज में आने पर इन्हें पता चला कि नवद्वीप में गौरचन्द्र उदय होकर अपनी सुशीतल किरणों से दोनों ही पक्षों में निरन्तर मोहज्वाला में झुलसते हुए संसारी प्राणियों को अपने श्रीकृष्ण-संकीर्तनरूपी अमृत से शीतलता प्रदान कर रहे हैं, इनका मन स्वतः ही श्रीगौरचन्द्र के आलोक में पहुँचने के लिये हिलोरें मारने लगा। अब ये अधिक समय तक व्रज में नहीं रह सके और प्रयाग, काशी होते हुए सीधे नवद्वीप में पहुँच गये। नवद्वीप जाकर अवधूत नित्यानंद सीधे महाप्रभु के समीप नहीं गये। वे पण्डित नन्दनाचार्य के घर जाकर ठहर गये। इधर प्रभु ने तो अपनी दिव्यदृष्टि द्वारा पहले ही देख लिया था कि नित्यानन्द नवद्वीप आ रहे है, इसीलिए उन्होंने खोज करने के लिए भक्तों को भेजा। |