श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी47. निमाई के भाई निताई
संन्यासी जी की इस बात को सुनकर हाड़ाई पण्डित सुन्न पड़ गये। उन्हें स्वप्न में भी ध्यान नहीं था कि संन्यासी महाशय ऐसी विलक्षण वस्तु की याचना करेंगे। भला, जिस पुत्र को पिता प्राणों से भी अधिक प्यार करता हो, जिसके बिना उसका जीवन असम्भव-सा ही हो जाने वाला हो, उस पुत्र को यदि कोई सदा के लिये माँग बैठे तो उस पिता को कितना भारी दुःख होगा, इसका अनुमान तो कोई सहृदय स्नेही पिता ही कर सकता है। अन्य पुरुष की बुद्धि के बाहर की बात है। महाराज दशरथ से विश्वामित्र-जैसे क्रोधी और तेजस्वी ब्रह्मर्षि ने कुछ दिनों के ही लिये श्रीरामचन्द्र जी को माँगा था। धर्म में आस्था रखने वाले महाराज यह जानते भी थे कि महर्षि की इच्छा-पूर्ति न करने पर मेरे राज्य तथा परिवार की खैर नहीं है। उन अमित तेजस्वी ब्रह्मर्षि के तप और प्रभाव से भी वे पूर्णरीत्या परिचित थे, उन्हें इस बात का भी दृढ़ विश्वास था कि विश्वामित्र जी के साथ में रामचन्द्र जी का किसी प्रकार भी अनिष्ट नहीं हो सकता, फिर भी पुत्र-वात्सल्य के कारण विश्वामित्र जी की इच्छा-पूर्ति करने के लिये वे सहमत नहीं हुए और अत्यन्त दीनता के साथ ममता में सने हुए वाक्यों से कहने लगे- जब गुरु वसिष्ठ ने उन्हें समझाया, तब कहीं जाकर उनका मोह भंग हुआ और वे महर्षि के इच्छानुसार श्रीरामचन्द्र जी को उनके साथ वन में भेजने को राजी हुए। इधर हाड़ाई पण्डित को उनकी धर्मनिष्ठा ने समझाया। उन्होंने सोचा- ‘पुत्र को देने में भी दुःख सहना होगा और न देने में भी अकल्याण है। संन्यासी शाप देकर मेरा सर्वस्व नाश कर सकते हैं। इसलिये चाहे जो हो पुत्र को इन्हें दे ही देना चाहिये।’ यह सोचकर वे पद्मावती देवी के पास गये और उनसे जाकर सभी वृत्तान्त कहा। भला, जिसे नित्यानन्द-जैसे महापुरुष की माता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वह अपने धर्म से विचलित कैसे हो सकती है? पुत्र-मोह के कारण वह कैसे अपने धर्म को छोड़ सकती है? सब कुछ सुनकर उसने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया- ‘मैं तो आपके अधीन हूँ। जो आपकी इच्छा है, वही मेरी भी होगी, पुत्र-वियोग का दुःख असह्या होता है, किंतु पतिव्रताओं के लिये पति-आज्ञा-उल्लंघन का दुःख उसे भी अधिक असह्या होता है, इसलिये आपकी जैसी इच्छा हो करें। मैं सब प्रकार से सहमत हूँ, जिसमें धर्मलोप न हो वही कीजिये।’ |