श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी46. श्रीवाराहावेश
इसी प्रकार अब प्रभु के भी शरीर में भिन्न-भिन्न अवतारों के आवेश होने लगे। जिस समय ये आवेशावस्था में होते, उस समय उसी अवतार के गुणों के अनुसार बर्ताव करने लगते और जब वह आवेश समाप्त हो जाता, तब आप एक अमानी भक्त की भाँति बहुत ही दीनता का बर्ताव करने लगते। भक्तों की पद-रज को अपने मस्तक पर चढ़ाते और सबसे अधीर होकर पूछते- ‘मुझे श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति कब हो सकेगी? आप लोग मुझे श्रीकृष्ण-प्राप्ति का उपाय बतावें। मैं अपने प्यारे श्रीकृष्ण से कैसे मिल सकूँगा? इस प्रकार इनके जीवन में दो भिन्न-भिन्न भाव प्रतीत होने लगे- भावावेश में तो भगवद्भाव और साधारणरीत्या भक्तभाव। जो इनके अन्तरंग भक्त थे, वे तो इनमें सर्वकाल में भगवद्भावना ही रखते और ये कितनी भी दीनता प्रकट करते तो भी उससे उनके भाव में परिवर्तन नहीं होता, किंतु जो साधारण थे, वे संदेह में पड़ जाते कि यह बात क्या है? कोई कहता- ‘ये साक्षात श्रीकृष्ण ही हैं।’ कोई कहता- ‘न जाने किसी देवी-देवता का आवेश होता हो।’ कोई-कोई इसे तान्त्रिक सिद्धि भी बताने लगे। प्रभु के शरीर में कुछ श्रीकृष्ण-लीलाओं का भी भक्तों ने उदय देखा था। कभी तो ये अक्रूर-लीला करते, कभी गोपियों के विरह में रुदन करते थे। मुरारी गुप्त वराह भगवान के उपासक थे। एक दिन मुरारी गुप्त वराह भगवान के स्तोत्र का पाठ कर रहे थे। प्रभु दूर से ही स्तोत्रपाठ सुनकर वराह की भाँति जोरों से गर्जना करते हुए ‘शूकर’, ‘शूकर’ ऐसा कहते हुए मुरारी गुप्त के घर की ओर चले। उस समय इनकी प्रकृति में मुरारी गुप्त ने सभी वराहावतार के गुणों का अनुभव किया। प्रभु दोनों हाथों को पृथ्वी पर टेककर हाथ-पैरों से बिलकुल वराह की भाँति चलने लगे। रास्ते में एक बड़ा पीतल का जलपूर्ण कलश रखा था। प्रभु ने उसे अपनी डाढ़ से उठाकर दूसरी ओर फेंक दिया और आप सीधे गुप्त महाशय के पूजागृह में चले गये। वहाँ जाकर आप आसनासीन हुए और मुरारी से कहने लगे- ‘मुरारी! तुम हमारी स्तुति करो।’ मुरारी ने हाथ जोड़े हुए अति दीनभाव से कहा- ‘प्रभो! आपकी महिमा वेदातीत है। वेद, शास्त्र आपकी महिमा को पूर्ण रीति से समझ ही नहीं सकते। श्रुतियों ने आपका ‘नेति’, ‘नेति’ कहकर कथन किया है। आप अन्तर्यामी हैं। शेष जी सहस्र मुखों से अहर्निश आपके गुणों का निरन्तर कथन करते रहते हैं तो भी प्रलय के अन्त तक आपके समस्त गुणों का कथन नहीं कर सकते। फिर मैं अज्ञ प्राणी भला आपकी स्तुति कैसे कर सकूँगा? |