श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी44. धीर-भाव
हम श्रीकृष्ण-कीर्तन ही तो करते हैं। देखा जायगा। जो कष्ट आवेगा, उसे सहेंगे।’ श्रीवास पण्डित ने भक्तों को तो इस भाँति समझा दिया, किंतु उनके मन में भय बना ही रहा। तो भी उन्होंने अपने मनोगत भावों को प्रभु के सम्मुख प्रकट नहीं किया। प्रभु तो सबके भावों को समझने वाले थे, उन्होंने भक्तों के भावों को समझ लिया कि ये यवन राजा के कारण कुछ भयभीत- से हो गये हैं, इसलिये इन्हें निर्भय कर देना चाहिये। एक दिन प्रभु ने अपने सम्पूर्ण शरीर में सुगन्धित चन्दन लगाया, घुँघराले काले-काले सुन्दर बालों में सुगन्धित तैल डाला। मूल्यवान स्वच्छ और महीन वस्त्र पहने और साथ में दो-चार भक्तों को लेकर गंगा-किनारे की ओर चल पड़े। उनके अरुण अधर पान की लाली लगने से और भी अत्यधिक अरुण बन गये थे। नेत्रों में से प्रसन्नता प्रकाशित हो रही थी। मुखकमल शरत्पूर्णिमा के चन्द्र के समान खिला हुआ था। वे मन्द-मन्द मुस्कान के साथ भक्तों के आनन्द को वर्धन करते हुए गंगा जी के घाटों पर इधर-से-उधर टहलने लगे। जो सात्त्विक प्रकृति के भगवद्भक्त थे, वे तो प्रभु के अद्भुत रूपलावण्य को देखकर मन-ही-मन परम प्रसन्न हो रहे थे, किंतु जो बहिर्मुख वृत्ति के निन्दक पुरुष थे, वे आपस में भाँति-भाँति की आलोचना-प्रत्यालोचना करने लगे। परस्पर में एक-दूसरे से कहने लगे- ‘यह निमाई पण्डित भी अजीब आदमी मालूम पड़ता है, इसे तनिक भी भय नहीं है। सम्पूर्ण शहर में हल्ला हो रहा है, कल सेना पकड़ने आवेगी और सबसे पहले निमाई पण्डित को ही बाँधकर नाव पर चढ़ाया जायगा। इन सब बातों को सुनने पर भी यह राजपुत्र के समान बन-ठनकर हँसता हुआ घूम रहा है। इसके चेहरे पर सिकुड़न भी नहीं मालूम पड़ती। बड़ा विचित्र पुरुष है।’ कोई-कोई कहता- ‘अजी! सब झूठी बातें हैं, न फौज आती है और न नाव ही आ रही है। सब चंडूखाने की गप्पें हैं।’ दूसरा इसका जोरों से खण्डन करके कहता- ‘वाह साहब! आप गप्प ही समझ रहे हैं, कल काजीसाहब स्वयं कहते थे। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ कल आप प्रत्यक्ष ही देख लेना।’ इस प्रकार लोग भाँति-भाँति से अपने-अपने अनुमानों को दौड़ा रहे थे। महाप्रभु भक्तों के साथ आनन्द में विहार कर रहे थे। इसी बीच एक प्रभु के पुराने परिचित पण्डित गंगाजी पर सन्ध्या करते हुए मिले। प्रभु को देखकर उन्होंने इन्हें प्रणाम किया, फिर आपस में वार्तालाप होने लगा। बातों-ही-बातों में पण्डित ने कहा- ‘भाई! सुन रहे हैं, तुम्हें पकड़ने के लिये राजा की तरफ से सेना आ रही है। सम्पूर्ण शहर में इसकी गरम अफवाह है। यदि ऐसी ही बात है, तो तुम कुछ दिन के लिये नवद्वीप छोड़कर कहीं अन्यत्र ही चले जाओ। राजा के साथ विरोध करना ठीक नहीं। फिर ऐसे राजा के साथ जो हमारे धर्म का स्वयं विरोधी हो। हमारी राय तो यही है कि इस समय तुम्हें मैदान छोड़कर भाग ही जाना चाहिये, आगे जैसा तुम उचित समझो।’ प्रभु ने कुछ उपेक्षा के साथ कहा- ‘अजी! जो होगा सो होने दो, अब गौड़ छोड़कर और जा ही कहाँ सकते हैं? यदि दूसरी जगह जायँगे तो वहाँ क्या बादशाह सेना भेजकर हमें पकड़कर नहीं मँगा सकता? इससे यहीं अच्छे हैं। जो कुछ दुःख पड़ेगा, उसे सहेंगे। शुभ कामों की ऐसे समय में ही तो परीक्षा होती है, दुःख ही तो धर्म की कसौटी है। देखना है कितने इस पर खरे उतरते हैं।’ यह सुनकर पण्डित चुप हो गये। प्रभु श्रीवास पण्डित के मकान की ओर चल पड़े। |