श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी43. श्रीवास के घर संकीर्तनारम्भ
ब्रह्मचारी जी की बातें सुनकर प्रभु कुछ भी नहीं बोले। वे ब्रह्मचारी जी की ओर देखकर मन्द-मन्द भाव से खड़े मुसकरा रहे थे। ब्रह्मचारी जी प्रभु की मुसकराहट का अर्थ समझ गये। वे अधीर होकर अपने-आप ही कह उठे- ‘प्रभो! हम तीर्थ यात्राओं का कथन करके अपना अधिकार नहीं जता रहे हैं। हम तो दीनभाव से एकमात्र आपकी शरण होकर प्रेम की याचना कर रहे हैं। हमें श्रीकृष्ण-प्रेम प्रदान कीजिये। भावावेश में प्रभु के मुख से स्वतः ही निकल पड़ा- ‘जाओ दिया, दिया।’ बस, इतना सुनना था कि ब्रह्मचारी सब कुछ भूलकर प्रेमावेश में भरकर पागलों की भाँति नृत्य करने लगे। वे नृत्य करते-करते उन्मत्त की भाँति मुख से कुछ प्रलाप-सा भी करते जाते थे। प्रभु उनकी ऐसी विचित्र दशा देखकर प्रेम में गद्गद हो गये और उनकी झोली में से धानमिश्रित भिक्षा के सूखे चावलों को निकाल-निकालकर चबाने लगे, मानो सुदामा के प्रति प्रेम प्रकट करते हुए कृष्ण उनके घर की चावलों की कनी को चबा रहे हों। इन दोनों के इस प्रकार प्रेममय व्यवहार को देखकर सभी दर्शक चकित-से हो गये और बार-बार प्रभु के प्रेम की प्रशंसा करने लगे। शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी भी अपने को कृतकृत्य समझकर प्रेम में विभोर हुए अपनी कुटिया में चले गये। इस प्रकार भक्तों के हृदय में प्रभु के प्रति अधिकाधिक सम्मान के भाव बढ़ने लगे। प्रभु भी भक्तों पर पहले से अत्यधिक प्रेम प्रदर्शित करने लगे। श्रीवास पण्डित के घर संकीर्तन का आरम्भ माघमास में हुआ था, परंतु दो-ही-तीन महीने में इसकी चर्चा चारों ओर फैल गयी और बहुत-से दर्शनार्थी संकीर्तन देखने की उत्सुकता से रात्रि में श्रीवास पण्डित के घर पर आने लगे। किंतु संकीर्तन के समय घर का फाटक बंद कर दिया जाता था। इसलिये सभी प्रकार के लोग भीतर नहीं जा सकते थे। बहुत-से लोगों को तो निराश होकर ही द्वार पर से लौटना पड़ता था। संकीर्तन में खास-खास भक्त ही भीतर जा सकते थे। उस समय संकीर्तन का यही नियम निर्धारित किया गया था। |