श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी43. श्रीवास के घर संकीर्तनारम्भ
गदाधर इनके परम अन्तरंग थे। ये सदा प्रभु की ही सेवा में बने रहते। एक दिन ये भोजन के अनन्तर मुखशुद्धि के निमित्त प्रभु को पान दे रहे थे। प्रभु ने प्रेमावेश में आकर अधीर बालक की भाँति पूछा- ‘गदाधर! भैया, तुम ही बताओ, मेरे कृष्ण मुझे छोड़कर कहाँ चले गये? भैया! मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकता। तुम सच-सच मुझे उनका पता दो, वे जहाँ भी होंगे, मैं वहीं जाकर उनकी खोज करूँगा और उनसे लिपटकर खूब पेटभर के रोऊँगा। तुम बता भर दो कि वे गये कहाँ?’ गदाधर ने बात टालने के लिये कहा दिया- ‘आप तो वैसे ही व्यर्थ में अधीर हुआ करते हैं। भला, आपके कृष्ण कभी आपको छोड़कर अन्यत्र जा सकते हैं? वे तो हर समय आपके हृदय में विराजमान रहते हैं। यह सुनकर आपने उसी अधीरता के साथ पूछा- ‘क्या प्यारे कृष्ण भी मेरे हृदय में बैठे हैं?’ गदाधर ने कुछ देर के बाद कहा- ‘बैठे क्यों नहीं हैं। अब वे आपके हृदय में विराजमान हैं और सदा ही रहते हैं।’ इतना सुनते ही बड़े आनन्द और उल्लास के साथ प्रभु अपने बड़े-बड़े नखों से हृदय को विदारण करने लगे। वे कहने लगे- ‘मैं हृदय फाड़कर अपने कृष्ण के दर्शन करूँगा। वे मेरे पास ही छिपे बैठे हैं और मुझे दर्शन तक नहीं देते। इस हृदय को चीर डालूँगा। इस प्रकार करते देख गदाधर को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने भाँति-भाँति की अनुनय-विनय करके इन्हें इस काम से निवारण किया। तब ये बहुत देर के बाद होश में आये। एक दिन रात्रि में प्रभु शय्या पर शयन कर रहे थे। गदाधर उनकी चरण-सेवा में संलग्न थे, चरण-सेवा करते-करते गदाधर ने अपना मस्तक प्रभु के पादपद्मों में रखकर गद्गद-कण्ठ से प्रार्थना की- प्रभो! इस अधम को, किन पापों के परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति नहीं होती? आप तो दीनवत्सल हैं, मुझे साधन का बल नहीं, शुभ कर्म भी मैं नहीं कर सकता। तीर्थयात्रा आदि पुण्य कार्यों से भी मैं वंचित हूँ, मुझे तो एकमात्र श्रीचरणों का ही सहारा है। मेरे ऊपर कब कृपा होगी? प्रभो! कब तक मैं इसी प्रकार प्रेमविहीन शुष्क जीवन बिताता रहूँगा?’ उनकी इस प्रकार कातर वाणी सुनकर प्रभु प्रसन्न हुए और उन्हें आश्वासन देते हुए कहने लगे- ‘गदाधर! तुम अधीर मत हो, तुम तो श्रीकृष्ण के अत्यन्त ही प्यारे हो। दीन ही तो भगवान को सबसे प्रिय हैं। बिना दीन-हीन बने कोई प्रभु को प्राप्त कर नहीं सकता। जिन्हें अपने शुभ कर्मों का अभिमान है या उग्र साधनों का भरोसा है, वे प्रभु की महती कृपा के अधिकारी कभी हो ही नहीं सकते। |