श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी43. श्रीवास के घर संकीर्तनारम्भ
संकीर्तन करते-करते प्रभु भावावेश में आकर ताण्डव नृत्य करने लगे। शरीर की किंचिन्मात्र भी सुध-बुध नहीं रही। एक प्रकार के महाभाव में मग्न होकर उनका शरीर अलातचक्र की भाँति निरन्तर घूम रहा थ। न तो किसी को उनके पद ही दिखायी देते थे और न उनका घूमना ही प्रतीत होता था। नृत्य करते-करते उन्हें एक प्रकार की उन्मादकारी बेहोशी-सी आ गयी और उसी बेहोशी में वे मुर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। भक्तों ने इन्हें बड़े यत्न से उठाया। थोड़ी देर के अनन्तर इन्होंने रोते-रोते भक्तों से कुछ कहना आरम्भ किया- ‘भाई! मैं क्या करूँ, मेरा मन अब मेरे वश में नहीं है। मैं जो कहना चाहता हूँ, उसे कह नहीं सकता। कितने दिनों से मैं तुमसे एक बात कहने के लिये सोच रहा हूँ, किंतु उसे अभी तक नहीं कह सका हूँ। आज मैं तुम लोगों से उसे कहूँगा। तुम लोग सावधानी के साथ श्रवण करो।’ प्रभु के ऐसा कहने पर सभी भक्त स्थिर-भाव से चुपचाप बैठ गये और एकटक होकर उत्सुकता के साथ प्रभु के मुखचन्द्र की ओर निहारने लगे। प्रभु ने साहस करके गम्भीरता के साथ कहना आरम्भ किया- ‘आप लोग तो अपने परम आत्मीय हैं, आपके सामने गोप्य ही क्या हो सकता है? इसलिये सबके सामने प्रकट न करने योग्य इस बात को मैं आपके समक्ष बताता हूँ। जब मैं गया से लौट रहा था, तब नाटशाला ग्राम में एक श्यामवूर्ण का परम सुन्दर बालक मेरे समीप आया। उसके लाल-लाल कोमल चरणों में सुन्दर नूपुर बँधे हुए थे। पैरों की उँगलियाँ बड़ी ही सुहावनी तथा क्रम से छोटी-बड़ी थीं। कमर में पीताम्बर बँधा हुआ था। पेट त्रिवली से युक्त और नाभि गोल तथा गहरी थी। वक्षःस्थल उन्नत और मांस से भरा हुआ था। गले की एक भी हड्डी दिखायी नहीं देती थी। गले में वनमाला तथा गुंजों की मालाएँ पड़ी हुई थीं। कानों में सुन्दर कुण्डल झलमल कर रहे थे। वह कमल के समान दोनों मनोहर नेत्रों से तिरछी निगाह से मेरी ओर देख रहा था, उसके सुन्दर गोल कपोलों के ऊपर काली-काली लटें लहरा रही थीं। वह मन्द-मन्द मुस्कान के साथ मुरली बजा रहा था। उस मुरली की मनोहर तान को सुनकर मेरा मन मेरे वश में नहीं रहा। मैं बेहोश हो गया और फिर वह बालक न जाने कहाँ चला गया?’ इतना कहते-कहते प्रभु बेहोश हो गये। उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। |