श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
प्राक्कथन एवं अन्तिम निवेदन
हिन्दी के किसी कवि ने निम्न पद में प्रेम का कैसा सुन्दर आदर्श बताया है-
प्रेम ही सब प्राणियों के पुण्य-पथ का द्वार है।
प्रेम से ही जगत का होता सदा उपकार है।।
जिस हृदय में प्रेम का उठता नहीं उद्गार है।
व्यक्ति वह निस्सार है, वह मनुज भूका भार है।।
सचमुच प्रेम के बिना जीवन इस भूमि का भार ही है। महाप्रभु के जीवन में प्रेम ही एक प्रधान वस्तु है। उनका जीवन प्रेममय था या वे स्वयं ही प्रेममय बने हुए थे। कैसे भी कह लीजिये, उनके जीवन से और प्रेम से अभेद सम्बन्ध हो गया था। ‘गौरजीवन’ और ‘प्रेम’- ये दोनों पर्यायवाची शब्द ही बन गये हैं। इन बातों का पूर्णरीत्या तो नहीं, हाँ, कुछ-कुछ आभास पाठकों को ‘श्रीश्रीचैतन्य- चरितावली’ के पढ़ने से मिल जायगा। ‘श्रीश्रीचैतन्य- चरितावली’ के सम्बन्ध में एक बात हम पाठकों को बता देना आवश्यक समझते हैं। वह यह कि यह ग्रन्थ न तो किसी भी भाषा के ग्रन्थ का भावानुवाद है और न किसी ग्रन्थ के आधार पर ही लिखा गया है। इसका एक प्रधान कारण है, प्रायः गौरांग महाप्रभु के सम्बन्ध का समस्त साहित्य या तो बंगला-भाषा में है या संस्कृत-भाषा में। उस सम्पूर्ण साहित्य के लेखक बंगदेशी ही महानुभाव हैं। और वे भी चैतन्य-सम्प्रदाय के ही सज्जन। उन सभी लेखकों ने चैतन्य-जीवन को बंगाली हाव-भाव और रीति-रिवाजों के ही अधीन होकर लिखा है, क्योंकि बंगाली होने के कारण वे ऐसा करने के लिये मजबूर थे।
इसके अतिरिक्त एक और भी बात है। आज तक गौड़ीय सम्प्रदाय के जितने भी चैतन्य-चरित्र-सम्बन्धी लेख हुए हैं, उनका दो बातों के ऊपर प्रधान लक्ष्य रहा है। एक तो अद्वैत-वेदान्त-सम्बन्ध सिद्धान्त को मायावाद बताकर उसकी असच्छास्त्रता सिद्ध करना और दूसरे गौरांगदेव को सभी अवतारों के आदि कारण ‘अवतारी’ के पद पर बिठाना। बस, इन दोनों बातों को भाँति-भाँति से सिद्ध करने के ही निमित्त प्रायः सभी चैतन्यदेव के चरित्र-सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे गये हैं। उन परम भावुक लेखकों ने मायावादियों को उलटी-सुलटी सुनाने में और श्रीचैतन्यदेव को साक्षात पूर्ण परब्रह्म नहीं मानने वालों को कोसने में ही अपनी अधिक शक्ति व्यय की है। मायावादियों को नीचा दिखाने और गौरांग के ‘अवतारित्व’ को सिद्ध करने में गौरांग का असली प्रेममय जीवन छिप-सा गया है। विपक्षियों का खण्डन करने में वे लेखकवृन्द महाप्रभु के ‘तृणादपि सुनीचने तरोरपि सहिष्णुना’ वाले उपदेश को प्रायः भूल गये हैं। उनका यह काम एक प्रकार से ठीक भी है, क्योंकि उनका जीवनी लिखने का प्रधान उद्देश्य ही यह था कि लोग सब कुछ छोड़-छोड़कर श्रीगौरांग को ही साक्षात श्रीकृष्ण मानकर एकमात्र उन्हीं की शरण में आ जायँ।
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