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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
43. श्रीवास के घर संकीर्तनारम्भ
चित्त बड़ा ही चंचल है, एकान्त में यह अधिकाधिक उपद्रव करने लगता है, इसलिये इसके निरोध का एक सरल-सा उपाय यही है कि जिन्होंने पूर्वजन्मों के शुभ संस्कारों से साधन करके या भगवत्कृपा प्राप्त करके अपनी चित्तवृत्तियों का थोड़ा-बहुत या सम्पूर्ण निरोध कर लिया है, उन्हीं के चित्त के साथ अपने चित्त को मिला देना चाहिये। कारण कि सजातीय वस्तु अपनी सजातीय वस्तु के प्रति शीघ्र आकृष्ट हो जाती है। इसीलिये सत्संग और संकीर्तन की इतनी अधिक महिमा गायी गयी है। यदि एक उद्देश्य से एक-मन और एक-चित्त होकर जो भी साधन किया जाय, तो पृथक-पृथक साधन करने की अपेक्षा उसका महत्त्व सहस्रों गुणा अधिक होता है और विशेषकर इस ऐसे घोर कलियुग के समय में जब सभी खाद्य पदार्थ भाव-दोष से दूषित हो गये हैं तथा विचार-दोष से गिरिशिखर, एकान्त स्थान आदि सभी स्थानों का वायुमण्डल दूषित बन गया है, ऐसे घोर समय में सत्पुरुषों के समूह में रहकर निरन्तर प्रेम से श्रीकृष्ण-संकीर्तन करते रहना ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। स्मृतियों में भी यही वाक्य मिलता है- 'संघे शक्तिः कलौ स्मृता’। कलियुग में सभी प्रकार के साधन संघ-शक्ति से ही फलीभूत हो सकते हैं और कलियुग में ‘कलौ केशवकीर्तनात्’ अर्थात केशव-कीर्तन ही सर्वश्रेठ साधन है। इसलिये इन सभी बातों से यही सिद्ध हुआ कि कलिकाल में सब लोग एक-चित्त और एक-मन से एकान्त स्थान में निरन्तर केशव का कीर्तन करें तो प्रत्येक साधक को अपने-अपने साधन में एक-दूसरे से बहुत अधिक मदद मिल सकती है। यही सब समझ-सोचकर तो संकीर्तनावतार श्रीचैतन्यदेव ने संकीर्तन की नींव डाली। वे इतने बड़े भावावेश में आकर भी वनों में नहीं भाग गये। उस प्रेमोन्माद की अवस्था में, जिसमें कि घर-बार, भाई-बन्धु सभी भूल जाते हैं, वे लोगों में ही रहकर श्रीकृष्ण-कीर्तन करते रहे और अपने आचरण से लोक-शिक्षा देते हुए जगदुद्धार करने में संलग्न-से ही बने रहे। यही उनकी अन्य महापुरुषों से विशेषता है।
महाप्रभु की दशा अब कुछ-कुछ गम्भीरता को धारण करती जाती है, अब वे कभी-कभी होश में भी आते हैं और भक्तों से परस्पर में बातें भी करते हैं। चिरकाल से आशा लगाये हुए बैठे कुछ भक्त प्रभु के पास आये और सभी ने मिलकर प्रतिदिन संकीर्तन करने की सलाह की। प्रभु ने सबकी सम्मति सहर्ष स्वीकार की और भक्ताग्रगण्य श्रीवास के घर संकीर्तन का सभी आयोजन होने लगा। रात्रि के समय छँटे-छँटे भगवद्भक्त वहाँ आकर एकत्रित होने लगे। प्रभु ने सबसे पहले संकीर्तन आरम्भ किया। सभी ने प्रभु का साथ दिया।
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