श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी42. अद्वैताचार्य और उनका सन्देह
गदाधर की ऐसी बात सुनकर हँसते हुए आचार्य अद्वैत ने उत्तर दिया- ‘गदाधर! तुम थोड़े दिनों के बाद इस बालक का महत्त्व समझने लगोगे। सभी वैष्णव इनके चरणों की पूजा कर अपने को कृतकृत्य समझा करेंगे। अभी तुम मेरे इस कार्य को देखकर आश्चर्य करते हो। कालान्तर में तुम्हारा यह भ्रम स्वतः ही दूर हो जायगा।’ इसी बीच प्रभु को कुछ-कुछ बाह्यज्ञान हुआ। चैतन्यता प्राप्त होते ही उन्होंने आचार्य के चरण पकड़ लिये और वे रोते-रोते कहने लगे- ‘प्रभो! अब हमारा उद्धार करो। हमने अपना बहुत-सा समय व्यर्थ की बकवाद में ही बरबाद किया। अब तो हमें अपने चरणों की शरण प्रदान कीजिये। अब तो हमें प्रेम का थोड़ा बहुत तत्त्व समझाइये! हम आपकी शरण में आये हैं, आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं।’ प्रभु की इस प्रकार की दैन्ययुक्त प्रार्थना को सुनकर आचार्य भौचक्के-से रह गये और कहने लगे- ‘प्रभो! अब मेरे सामने अपने को बहुत न छिपाइये। इतने दिन तक तो छिपे-छिपे रहे, अब और कब तक छिपे ही रहने की इच्छा है? अब तो आपके प्रकाश में आने का समय आ गया है।’ प्रभु ने दीनता के साथ कहा- ‘आप ही हमारे माता-पिता तथा गुरु हैं। आपका जब अनुग्रह होगा, तभी हम श्रीकृष्णप्रेम प्राप्त कर सकेंगे। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि हम वैष्णवों के सच्चे सेवक बन सकें।’ इस प्रकार बहुत देर तक परस्पर में दोनों ओर से दैन्ययुक्त बातें होती रहीं। अन्त में प्रभु गदाधर के साथ अपने घर को चले गये। इधर अद्वैताचार्य ने सोचा- ‘ये मुझे छलना चाहते हैं। यदि सचमुच मेरा स्वप्न सत्य होगा और ये वे ही रात्रिवाले महापुरुष होंगे तो संकीर्तन के समय मुझे स्वतः ही अपने पास बुला लेंगे। अब मेरा नवद्वीप में रहना ठीक नहीं।’ यह सोचकर वे नवद्वीप को छोड़कर शान्तिपुर के अपने घर में जाकर रहने लगे। |