श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी39. सर्वप्रथम संकीर्तन और अध्यापकी का अन्त
मानो स्थावर-जंगम, चर-अचर सभी मिलकर इस कलिपावन नाम का प्रेम के साथ संकीर्तन कर रहे हों। इस प्रकार थोड़ी देर के अनन्तर प्रभु का भावावेश कुछ कम हुआ। धीरे-धीरे उन्होंने ताली बजानी बंद कर दी और संकीर्तन समाप्त कर दिया। प्रभु के चुप हो जाने पर सभी विद्यार्थी तथा दर्शनार्थी चुप हो गये, उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु अब भी निकल रहे थे। प्रभु ने उठकर एक बार फिर सब विद्यार्थियों को गले से लगाया। सभी विद्यार्थी फूट-फूटकर रो रहे थे। कोई कह रहा था- ‘हमारे प्राणों के सर्वस्व हमें इसी प्रकार मझधार में न छोड़ दीजियेगा!’ कोई हिचकियाँ लेते हुए गद्गदकण्ठ से कहता- ‘पढ़ना-लिखना तो जो होना था, सो हो लिया, आपके हृदय के किसी कोने में हमारी स्मृति बनी रहे, यही हमारी प्रार्थना है।’ प्रभु उन्हें बार-बार आश्वासन देते। उनके शरीरों पर हाथ फेरते, किन्तु उन्हें धैर्य होता ही नहीं था, प्रभु के स्पर्श से उनकी अधीरता अधिकाधिक बढ़ती जाती थी, वे बार-बार प्रभु के चरणों में लोटकर प्रार्थना कर रहे थे। दर्शनार्थी इस करूण दृश्य को और अधिक देर तक देखने में समर्थ न हो सके, वे कपड़ों से अपने-अपने मुखों को ढककर फूट-फूटकर रोने लगे। प्रभु भी इस करुणा की उमड़ती हुई तरंग में बहुत प्रयत्न करने पर भी अपने को न सँभाल सके। वे भी रोते-राते वहाँ से गंगा जी की ओर चल दिये। विद्यार्थी उनके पीछे-पीछे जा रहे थे। प्रभु ने सभी को समझा-बुझाकर विदा किया। प्रभु के बहुत समझाने पर विद्यार्थी दुःखित भाव से अपने-अपने स्थानों को चले गये और प्रभु गंगा जी से निवृत्त होकर अपने घर को चले आये। |