श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी39. सर्वप्रथम संकीर्तन और अध्यापकी का अन्त
एक बार तुम सभी लोग मिलकर श्रीकृष्ण के मंगलमय नामों का उच्च स्वर से संकीर्तन करो!’ विद्यार्थियों ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा- ‘गुरुदेव! हम संकीर्तन को क्या जानें? हमें तो पता भी नहीं संकीर्तन कैसे किया जाता है? हाँ, यदि आप ही कृपा करके हमें संकीर्तन की प्रणाली सिखा दें तो हम जिस प्रकार आज्ञा हो उसी प्रकार सब कुछ करने के लिये उद्यत हैं।’ प्रभु ने सरलता के साथ कहा- ‘कृष्ण-कीर्तन में कुछ कठिनता थोड़े ही है, बड़ा ही सरल मार्ग है। तुम लोग बड़ी ही आसानी के साथ उसे कर सकते हो।’ यह कहकर प्रभु ने स्वयं स्वर के सहित नीचे का पद उच्चारण करके बता दिया- प्रभु ने स्वयं हाथ से ताली बजाकर इस नाम-संकीर्तन को आरम्भ किया। प्रभु की बतायी हुई विधि के अनुसार सभी विद्यार्थी एक स्वर से इस नाम-संकीर्तन को करने लगे। हाथ की तालियों के बजने से तथा संकीर्तन के सुमधुर स्वर से सम्पूर्ण चण्डीमण्डप गूँजने लगा। लोगों को महान आश्चर्य हुआ। नवद्वीप में यह एक नवीन ही वस्तु थी। इससे पूर्व ढोल, मृदंग, करताल आदि वाद्यों पर पद-संकीर्तन तो हुआ करता था, किन्तु सामूहिक नाम-संकीर्तन तो यह सर्वप्रथम ही था। इसकी नींव निमाई पण्डित की पाठशाला ही में पहले-पहल पड़ी। सबसे पहले इन्हीं नामों के पद से नाम-संकीर्तन प्रारम्भ हुआ। प्रभु भावावेश में जोर से संकीर्तन कर रहे थे, विद्यार्थी एक स्वर से उनका साथ दे रहे थे। कीर्तन की सुमधुर ध्वनि से दिशा-विदिशाएँ गूँजने लगीं। चण्डीमण्डप में मानो आनन्द का सागर उमड़ पड़ा। दूर-दूर से मनुष्य उस आनन्द-सागर में गोता लगाकर अपने को कृतार्थ बनाने के लिये दौड़े आ रहे थे। सभी आनन्द की बाढ़ में अपने-आपे को भूलकर बहने लगे और सभी दर्शनार्थियों के मुँह से स्वयं ही निकलने लगा- |