श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी39. सर्वप्रथम संकीर्तन और अध्यापकी का अन्त
प्रभु अब कुछ-कुछ स्वस्थ हुए थे। उन्हें अब थोड़ा-थोड़ा बाह्य-ज्ञान होने लगा। इसलिये विद्यार्थियों के ऐसा कहने पर आपने रोते-रोते उत्तर दिया- ‘भैया! हम क्या करें, हमारी प्रकृति स्वस्थ नहीं है। मालूम पड़ता है, हमें फिर से वही पुराना वायु-रोग हो गया है। हम क्या कह जाते हैं, इसका हमें स्वयं पता नहीं। अब हमसे इन ग्रन्थों का अध्यापन न हो सकेगा। आप लोग जाकर किसी दूसरे अध्यापक से पढ़ें! अब हम अपने वश में नहीं हैं।’ प्रभु के ऐसा कहने पर सभी विद्यार्थी फूट-फूटकर रोने लगे और विलाप करते हुए करूणकण्ठ से प्रार्थना करने लगे- ‘गुरुदेव! अब हम कहाँ जायँ? हम निराश्रयों के आप ही एकमात्र आश्रय हैं। हमें आपके समान वात्सल्य प्रेम दूसरे किस अध्यापक में मिल सकेगा? इतने प्रेम के साथ हमें अन्य अध्यापक पढ़ा ही नहीं सकता। आपके समान सर्व संशयों का छेत्ता और सरलता के साथ सुन्दर शिक्षा देने वाला अध्यापक ढूँढ़ने पर भी हमें त्रिलोकी में नहीं मिल सकता। आप हमारा परित्याग न कीजिये। हम आपके रोग की यथाशक्ति चिकित्सा करावेंगे। स्वयं दिन-रात्रि सेवा-शुश्रूषा करते रहेंगे।’ उनकी आर्तवाणी सुनकर प्रभु की आँखों में से अश्रुओं की धारा बहने लगी। रोते-रोते उन्होंने कहा- भैया! तुम लोग हमारे बाह्य प्राणों के समान हो। तुमसे सम्बन्ध-विच्छेद करते हुए हमें स्वयं अपार दुःख हो रहा है, किन्तु हम करें क्या, हम तो विवश हैं। हमारी पढ़ाने की शक्ति ही नहीं। नहीं तो तुम्हारे-जैसे परम बन्धुओं के सहवास का सुख स्वेच्छापूर्वक कौन सत्पुरुष छोड़ सकता है?’ विद्यार्थियों ने दीनभाव से कहा- ‘आज न सही, स्वस्थ होने पर आप हमें पढ़ावें। हमारा परित्याग न कीजिये, यही हमारी श्रीचरणों में विनम्र प्रार्थना है। आप ही हमारी इस जीवन नौका के एकमात्र आश्रय हैं, हमें मझधार में ही बिलखता हुआ छोड़कर अन्तर्धान न हूजिये!’ प्रभु ने गद्गद कण्ठ से कहा- ‘भैया! मेरा यह रोग असाध्य है। अब इससे छुटकारा पाने की आशा नहीं। किसी दूसरे के सामने तो बताने की बात नहीं है, किन्तु तुम तो अपनी आत्मा ही हो, तुमसे छिपाने योग्य तो कोई बात हो ही नहीं सकती। असल बात यह है कि अब हम पढ़ाने का या किसी अन्य काम के करने का यत्न करते हैं तो एक श्यामवर्ण का सुन्दर शिशु हमारी आँखों के सामने आकर बड़े ही सुन्दर स्वर में मुरली बजाने लगता है। उस मुरली की विश्वविमोहिनी तान को सुनकर हमारा चित्त व्याकुल हो जाता है और हमारी सब सुध-बुध भूल जाती है। |