श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी39. सर्वप्रथम संकीर्तन और अध्यापकी का अन्त
प्रभु के ऐसे उत्तर को सुनकर विद्यार्थी कहने लगे- ‘आप तो फिर वैसी ही बातें कहने लगे। धातु का यथार्थ अर्थ बताइये। पुस्तक में जो लिखा है उसी के अनुसार कथन कीजिये!’ प्रभु ने अधीरता के साथ कहा- ‘धातु का यथार्थ अर्थ तो यही है, जो मैं कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त मैं और कुछ कह ही नहीं सकता। मुझे तो इसका वही अर्थ मालूम पड़ता है। आगे आप लोग जैसा समझें।’ इस पर विद्यार्थियों ने कुछ प्रेम के साथ अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहा- ‘आप तो हमें ऐसी विचित्र-विचित्र बातें बताते हैं, हम अब याद क्या करें? हमारा काम कैसे चलेगा, इस प्रकार हमारी विद्या कब समाप्त होगी और इस तरह से हम किस प्रकार विद्या प्राप्त कर सकते हैं?’ आप प्रेम के आवेश में आकर कहने लगे- ‘सदा याद करते रहने की तो एक ही वस्तु है। सदा, सर्वदा, सर्वत्र श्रीकृष्ण के सुन्दर नामों के ही स्मरणमात्र से प्राणिमात्र का कल्याण हो सकता है। सदा उसी का स्मरण करते रहना चाहिये। अहा, जिन्होंने पूतना- जैसी बालघ्नी को, जो अपने स्तनों में जहर पलेटकर बालकों के प्राण हर लेती थी, उस क्रूर कर्म करने वाली राक्षसी को भी सद्गति दी, उन श्रीकृष्ण की लीलाओं का चिन्तन करना ही मनुष्यों के लिये परम कल्याण का साधन हो सकता है। जो दुष्टबुद्धि से भी श्रीकृष्ण का स्मरण करते थे, जो उन्हें शत्रुरूप से विद्वेष के कारण मारने की इच्छा से उनके पास आये थे, वे अघासुर, बकासुर, शकटासुर आदि पापी भी उनके जगत-पालन दर्शनों के कारण इस संसार-सागर से बात-की-बात में पार हो गये, जिससे योगी लोग करोड़ों वर्ष तक समाधि लगाकर भाँति-भाँति के साधन करते रहने पर भी नहीं तर सकते, उन श्रीकृष्ण के चारू चरित्रों के अतिरिक्त चिन्तनीय चीज और हो ही क्या सकती है?’ ’श्रीकृष्ण-कीर्तन से ही उद्धार होगा, श्रीकृष्ण-कीर्तन ही सर्वसिद्धिप्रद है, उसके द्वारा प्राणिमात्र का कल्याण हो सकता है। श्रीकृष्ण-कीर्तन ही शाश्वत शान्ति का एकमात्र उपाय है, उसी के द्वारा मनुष्य सभी प्रकार के दुःखों से परित्राण पा सकता है। तुम लोगों को उसी श्रीकृष्ण की शरण में जाना चाहिये।’ इनकी ऐसी व्याख्या सुनकर सभी विद्यार्थी श्रीकृष्णप्रेम में विभोर होकर रुदन करने लगे। वे सभी प्रकार के संसारी विषयों को भूल गये और श्रीकृष्ण को ही अपना आश्रय-स्थान समझकर उन्हीं की स्मृति में अश्रु-विमोचन करने लगे। उनमें से कुछ उतावले और पुस्तकी विद्या को ही परम साध्य समझने वाले छात्र कहने लगे- ‘हमें तो पुस्तक के अनुसार उसकी व्याख्या बताइये! उसे ही पढ़ने के लिये हम यहाँ आये हैं।’ |