श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी38. वही प्रेमोन्माद
ये सब बातें सुनकर भी प्रभु चुप ही रहे, उन्होंने किसी भी बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। गंगादास जी ने अपना व्याख्यान समाप्त नहीं किया। वे फिर कहने लगे- ‘तुम्हारे नाना नीलाम्बर चक्रवर्ती एक नामी पण्डित हैं। तुम्हारे पूज्य पिता भी प्रतिष्ठित पण्डित थे, तुम्हारे मातृकुल तथा पितृकुल में सनातन से पाण्डित्य चला आया है, तुम स्वयं भारी विद्वान हो, तुम्हारी विद्या-बुद्धि से ही मुग्ध होकर सनातन मिश्र-जैसे राजपण्डित ने अपनी पुत्री का तुम्हारे साथ विवाह किया है। नवद्वीप की विद्वन्मण्डली तुम्हारा यथेष्ठ सम्मान करती है, विद्यार्थियों को तुम्हारे प्रति पूर्ण सम्मान के भाव हैं, फिर तुम मूर्खों के चक्कर में केसे आ गये? देखो बेटा! अध्यापक का पद पूर्वजन्म के बहुत बड़े भाग्यों से मिलता है। तुम उसके काम में असावधानी करते हो, यह ठीक नहीं है। बोलो, उत्तर क्यों नहीं देते? अब अच्छी तरह से पढ़ाया करोगे?’ नम्रता के साथ महाप्रभु ने कहा- ‘आपकी आज्ञापान करने की भरसक चेष्टा करूँगा। क्या करूँ, मेरा मन मेरे वश में नहीं है। कहना चाहता हूँ कुछ और मुँह से निकल जाता है कुछ और ही!’ गंगादास जी ने प्रेम के साथ कहा- ‘सब ठीक हो जायगा। चित्त को ठीक रखना चाहिये। तुम तो समझदार आदमी हो। मन को वश में करो, सोच-समझकर बात का उत्तर दो। कल से खूब सावधानी रखना। विद्यार्थियों को खूब मनोयोग के साथ पढ़ाना। अच्छा!’ ‘जो आज्ञा’ कहकर प्रभु ने आचार्य गंगादास को प्रणाम किया और वे विद्यार्थियों के साथ उनसे विदा हुए। |