श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी38. वही प्रेमोन्माद
महाप्रभु के भक्त हो जाने की बात सुनकर वे ठहाका मारकर हँसने लगे और विद्यार्थियों से कहने लगे- ‘हाँ, सुना तो मैंने भी है कि निमाई अब भक्त बन आया है। पण्डित होकर उस पर यह क्या भूत सवार हो गया- यह तो अनपढ़ मूर्खों का काम है। ब्राह्मण पण्डित को तो निरन्तर शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में ही लगे रहना चाहिये। खैर, अब तुम लोग अपने-अपने स्थानों को जाओ। कल उसे मेरे पास भेज देना, मैं उसे समझा दूँगा। मेरी बात को वह कभी नहीं टालता है।’ इतना सुनकर विद्यार्थी अपने-अपने स्थानों पर चले गये। दूसरे दिन प्रभु से विद्यार्थियों ने कहा- ‘आचार्य जी ने आज आपको अपने यहाँ बुलाया है, आगे आपकी इच्छा है, आज जाइये या फिर किसी दिन हो आइये।’ आचार्य गंगादास जी का बुलावा सुनकर प्रभु उसी समय दो-चार विद्यार्थियों को साथ लेकर उनके स्थान पर पहुँचे। वहाँ जाकर प्रभु ने अपने विद्यागुरु के चरणों की वन्दना की, गंगादास जी ने भी उनका पुत्र की भाँति आलिंगन किया और बैठने के लिये एक आसन की ओर संकेत किया। आचार्य की आज्ञा पाकर उनके बताये हुए आसन पर प्रभु बैठ गये। प्रभु के बैठ जाने पर साथ के विद्यार्थी भी पीछे एक ओर हटकर पाठशाला की बिछी हुई चटाइयों पर बैठ गये। प्रभु के सुखपूर्वक बैठ जाने पर वात्सल्य-प्रेम प्रकट करते हुए आचार्य गंगादास जी ने कहा- ‘निमाई! तुम मेरे प्रिय विद्यार्थी हो, मैं तुम्हें पुत्र की भाँति प्यार करता हूँ। शास्त्रों में कहा है, अपने प्यारे की उसके मुख पर बड़ाई न करनी चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से उसकी आयु क्षीण होती है, किन्तु यथार्थ बात तो कही ही जाती है। तुमने मेरी पाठशाला के नाम को सार्थक बना दिया है, तुम-जैसे योग्य विद्यार्थियों को विद्या पढ़ाकर मेरा इतना दिनों का परिश्रम से पढ़ाना सफल हो गया। तुमने अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य द्वारा मेरे मुख को उज्ज्वल कर दिया। मैं तुमसे बहुत ही प्रसन्न हूँ।’ आचार्य के मुख से अपनी इतनी प्रशंसा सुनकर प्रभु लज्जितभाव से नीचे की ओर देखते हुए चुपचाप बैठे रहे, उन्हेांने इन बातों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। आचार्य गंगादास जी फिर कहने लगे- ‘योग्य बनने के अनन्तर तुम अध्यापक हुए और तुमने अध्यापन-कार्य में भी यथेष्ठ ख्याति प्राप्त की। तुम्हारे सभी विद्यार्थी सदा तुम्हारे शील-स्वभाव की तथा पढ़ाने की सरल सुन्दर प्रणाली की प्रशंसा करते रहते हैं, वे लोग तुम्हारे सिवा दूसरे किसी के पास पढ़ना पसंद ही नहीं करते। किन्तु कल उन्होंने आकर मुझसे तुम्हारी शिकायत की है। तुम उन्हें अब मनोयोग के साथ ठीक-ठीक नहीं पढ़ाते हो। और लोगों ने भी मुझसे आकर कहा है कि तुम अनपढ़ मूर्खभक्तों की भाँति रोते-गाते तथा हँसते-कूदते हो, एक इतने भारी अध्यापक को ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं! तुम विद्वान हो, समझदार हो, मेधावी हो। |