|
श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
34. भक्तिस्त्रोत उमड़ने से पहले
अब प्रश्न यह है कि भक्ति तथा मुक्ति में कौन-सी वस्तु श्रेष्ठ है? इनका उत्तर यही दिया जा सकता है कि या तो इनमें से कोई भी श्रेष्ठ नहीं या दोनों ही श्रेष्ठ हैं। ये दोनों ही स्थिति सनातन हैं, सदा से प्राणियों की ये ही दो परम स्थिति सुनी गयी हैं। वेद-शास्त्रों से ज्ञानी-महर्षियों ने इन्हीं दो स्थितियों का वर्णन किया है। ‘तस्य तदेव मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नः’ जिसके जो अनुकूल पड़े उसके लिये वही सर्वोत्तम है। हृदय और मस्तिष्क की ये दो ही शक्तियाँ हैं। जिसमें जिसकी प्रधानता होगी, उसको वही मार्ग रुचिकर होगा। दूसरे से उसे कोई प्रयोजन नहीं। वह तो अपने ही मार्ग को सर्वस्व समझेगा। अब यह प्रश्न उठता है कि बहुधा भक्तों को यह कहते सुना गया है कि ‘हम तो मुक्ति को अत्यन्त तुच्छ समझते हैं, भक्ति के बिना मुक्ति को हम तो ठुकरा देते हैं।’ इसके विपरीत ज्ञान-मार्ग के साधकों के द्वारा यह सुना गया है कि ‘मुक्ति ही मनुष्य का चरम लक्ष्य है, भक्ति उसका साधन भले ही हो किन्तु साध्य वस्तु तो मुक्ति ही है। मुक्ति के बिना परम शान्ति नहीं।’ इनमें से किसकी बात मानें? दो बातें तो ठीक हो नहीं सकतीं। फिर वे दो ऐसी बातें जो परस्पर में एक-दूसरे के विरुद्ध हों।
यदि ध्यानपूर्वक इन दोनों बातों पर विचार किया जाय तो इन दोनों में कोई विरोध नहीं मालूम पड़ता। लोक में भी देखा जाता है कि जिस मनुष्य को जो वस्तु अत्यन्त प्रिय होती है, वह कहता है ‘मैं तो इससे बढ़कर त्रिलोकी में कोई वस्तु नहीं समझता।’ उसके कथन का अभिप्राय इतना ही है कि मुझे तो यही वस्तु अत्यन्त प्रिय है, मेरे लिये तो इससे बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है। ‘नहीं’ कहने से उसका अभिप्राय अन्य वस्तुओं के ‘अभाव’ से न होकर ‘प्रिय’ से है। अर्थात मुझे इसके सिवा दूसरी वस्तु प्रिय नहीं है। उसका कथन एक प्रकार से ठीक भी है, जब तक उसकी उस वस्तु के प्रति अनन्यता न हो जायगी तब तक उसमें प्रीति कही ही नहीं जा सकती। इसी प्रकार भक्ति का मार्ग जिन्होंने ग्रहण किया है, उनके लिये ज्ञान के द्वारा मुक्ति प्राप्त करना कोई वस्तु ही नहीं है और जिन्होंने ज्ञान के मार्ग से जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, उनके लिये किसी भी प्रकार के नाम-रूप का चिन्तन करना महान विघ्न है। ये हम साधारण लोगों के समझने के लिये साधारण-सी दलीलें हैं।
|
|