श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी32. विष्णुप्रिया-परिणय
लजाते हुए और शरीर को कुछ टेढ़ा करते हुए धीरे से विष्णुप्रिया ने कहा- ‘राजपण्डित!’ माता ने जल्दी से कहा- पं. सनातन मिश्र की लड़की है तू? तब बताती क्यों नहीं है? राजपण्डित की पुत्री भी राजपुत्री होती है, तभी नहीं बताती थी, क्यों यही बात है न?’ विष्णुप्रिया लजाती हुई चुपचाप खड़ी रही। माता ने उससे और भी दो-चार बातें पूछकर उसे विदा किया। विष्णुप्रिया का शील-स्वभाव और सौन्दर्य शचीमाता की दृष्टि में गड़-सा गया था। वे बार-बार यही सोचने लगीं- ‘क्या ही अच्छा हो यदि यह लड़की मेरी पुत्र-वधू बन जाय? वे रोज घाट पर विष्णुप्रिया को देखतीं और उससे दो-चार बातें जरूर करतीं। विष्णुप्रिया का अद्भुत रूप-लावण्य, उनकी अत्यन्त कोमल प्रकृति, प्रशंसनीय शील-स्वभाव और अनुपम विष्णु-भक्ति की वे मन-ही-मन बार-बार सराहना करतीं। इसलिये वे उनके प्रति अधिकाधिक प्रेम प्रदर्शित करने लगीं। विष्णुप्रिया के मन में भी इनके प्रति भक्ति बढ़ने लगी। शचीमाता बार-बार सोचतीं- ‘क्या हर्ज है, एक बार सनातन मिश्र से पुछवाऊँ तो सही, बहुत करेंगे वे अस्वीकार ही कर देंगे।’ फिर सोचतीं- ‘वे राजपण्डित हैं, धनाढ्य हैं, सब जगह उनकी भारी प्रतिष्ठा है, वे एक विधवा के पुत्र के साथ अपनी पुत्री का सम्बन्ध क्यों करने लगे।’ यही सोचकर कुछ डर-सी जातीं और उनका साहस नहीं होता। एक दिन उन्होंने साहस करके काशीनाथ मिश्र नाम के घटक को बुलाया और उनसे बोलीं- ‘मिश्रजी! तुमने सनातन मिश्र की लड़की देखी है?’ घटक ने कहा- ‘लड़की मैंने देखी है, बड़ी ही सुन्दर, सुशील तथा गुणवती है। निमाई के वह सर्वथा योग्य है। मैं समझता हूँ तुम उस लड़की को अपनी पुत्र-वधू बनाकर जरूर प्रसन्न होगी।’ माता ने कहा- ‘यह तो तुम ठीक कहते हो, किन्तु वे धनाढ्य हैं, राजपण्डित हैं। बहुत सम्भव है वे इस सम्बन्ध को न स्वीकार करें। हमारी तो तुम दशा देखते ही हो, वैसे लड़की को अन्न-वस्त्र का तो घाटा न होगा।’ घटक ने जोर देकर कहा- ‘माता जी! तुम कैसे बात करती हो? भला, निमाई-जैसे योग्य, प्रतिष्ठित पण्डित को जमाई बनाने में कौन अपना सौभाग्य न समझेगा? मैं समझता हूँ, वे इसे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे। मैं आज ही उनके यहाँ जाऊँगा और शाम को ही तुम्हें उत्तर दे जाऊँगा।’ यह कहकर काशीनाथ मिश्र माता को प्रणाम करके चले गये। इधर पण्डित सनातन मिश्र बहुत दिनों से चाह रहे थे कि विष्णुप्रिया का सम्बन्ध निमाई पण्डित के साथ हो जाता तो बहुत अच्छा होता। किन्तु वे भी मन में कुछ संकोच करते थे कि निमाई आजकल नामी पण्डित समझे जाते हैं। |