श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी29. दिग्विजयी का पराभव
शास्त्रार्थ करने में असमर्थ छात्र चुपचाप उनके समीप बैठकर शास्त्रार्थ के श्रवणमात्र से ही अपने को आनन्दित कर रहे हैं। बहुत-से दर्शनार्थी चारों ओर घिरकर बैठ जाते हैं, कोई-कोई खडे़ होकर भी विद्यार्थियों के वाक्-युद्ध का आनन्द देखने लगते हैं, तब दूसरे विद्यार्थी उन्हें इशारे से बिठा देते हैं। इस प्रकार विद्यार्थियों में खूब ही शास्त्रालोचना हो रही है। इन सभी छात्रों के बीच निमाई पण्डित मानो सिरमौर हैं। इस शास्त्रार्थ की जान वे ही हैं, वे स्वयं भी विद्यार्थियों में मिलकर शास्त्रार्थ करते हैं और दूसरों को भी उत्साहित करते जाते हैं। दूसरे पंडित एकान्त में दूर खड़े होकर, कोई सन्ध्या का बहाना करके, कोई पाठ के बहाने से निमाई के मुख से निसृत वाक्सुधा का रसास्वादन कर रहे हैं। बहुत-से पण्डित यथार्थ में ही सन्ध्या करके मनोविनोद के निमित्त विद्यार्थियों के समीप खड़े हो गये हैं, और एक-दूसरे के विवाद में कभी-कभी किसी की सहायता भी कर देते हैं। इसी बीच दिग्विजयी पण्डित भी अपने दो-चार अन्तरंग पण्डितों के साथ गंगाजी पर आये। दिग्विजयी का सुन्दर सुहावना गौर वर्ण था, शरीर सुगठित और स्थूल था, बड़ी-बड़ी सुन्दर भुजाएँ, उन्नत वक्षःस्थल और गोल चेहरे के ऊपर बड़ी-बड़ी आँखें बड़ी ही भली मालूम पड़ती थीं। उनके प्रशस्त सुन्दर ललाट पर रोली की एक चैड़ी-सी बिन्दी लगी हुई थी, सिर के बाल आधे पक गये थे, चेहरे से रोब और विद्वत्ता प्रकट होती थी, शरीर में अभिमानजन्य स्फूर्ति थी, केवल एक सफेद कुर्ता पहने नंगे सिर आकर दिग्विजयी ने गंगा जी को प्रणाम किया, आचमन करके वे थोड़ी देर बैठे रहे। फिर वैसे ही मनोविनोद के निमित्त विद्यार्थियों की ओर चले गये। निमाई के समीप के विद्यार्थी ने इशारे से बताया, ये ही वे दिग्विजयी हैं। दिग्विजयी को देखकर निमाई पण्डित ने उन्हें नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और बैठने के लिये आग्रह किया। पहले तो दिग्विजयी ने बैठने में संकोच किया, जब सभी ने आग्रह किया, तो वे बैठ गये। प्रायः मानियों के समीप ही मान-प्रतिष्ठा की परवा की जाती है, जो मान-अपमान से परे हैं उनके समीप मानी-अमानी, मूर्ख-पण्डित सभी समानरूप से जा-आ सकते हैं और उनकी सीधी-सादी बातों में वे मानापमान का ध्यान नहीं करते। इसीलिये तो लड़के, पागल तथा मूर्खों के साथ सभी बेखट के चले जाते हैं, उनसे उन्हें उद्वेग नहीं होता। उद्वेग का कारण तो अन्तरात्मा में सम्मान की इच्छा है। जिसके हृदय में सम्मान की लिप्सा है, वह माननीय लोगों में सम्मान के ही साथ जाना पसन्द करेगा, उसे इस बात का सदा भय बना रहता है, कि वहाँ मेरा अपमान न होने पावे। इसलिये उत्तम आसन का पहले से ही प्रबन्ध करा लेगा, तब वहाँ जाना स्वीकार करेगा। |