श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी26. पूर्व बंगाल की यात्रा
संसारसर्पदंष्टानामेकमेव सुभेषजम्। अर्थात् संसाररूपी सर्प के काटे हुए मनुष्य के लिये एक ही सर्वोत्तम ओषधि है, वह यह कि हर समय, हर काल में और हर स्थान में निरन्तर हरिस्मरण ही करते रहना चाहिये। बस, मुख्य साधन यह है- हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। ‘ये सोलह नाम और बत्तीस अक्षरों का मन्त्र ही मुख्य साधन है। साध्य के चक्कर में अभी से मत पड़ो। इसका जप करते-करते साध्य का निर्णय स्वयं ही हो जायगा।’ प्रभु के मुख से साधन का गुह्य रहस्य सुनकर मिश्र जी को बड़ा ही आनन्द हुआ। आनन्द के कारण उनकी आँखों में से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने रोते-रोते प्रभु के चरण पकड़कर प्रार्थना की- ‘प्रभो! आपकी असीम अनुकम्पा से आज मेरे सभी संशयों का मूलोच्छेदन हो गया। अब मुझे कोई भी शंका नहीं रही। अब मेरी यही अन्तिम प्रार्थना है कि मुझे श्रीचरणों से पृथक न कीजिये। सदा चरणों के ही समीप बना रहूँ, ऐसी आज्ञा प्रदान कीजिये।’ प्रभु ने कहा- ‘अब काशी जाकर निवास कीजिये। कालान्तर में हम भी काशी जी आवेंगे तभी आपसे भेंट होगी। आपको वहीं शिवपुरी में जाकर रहना चाहिये।’ प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके तपन मिश्र काशी जी को चले गये ओर इधर प्रभु अब घर लौटने की तैयारियाँ करने लगे। |