चित दै सुनौ अंबुज-नैन
कृपन कौ गथ भयौ तुमकौं, सरस अंमृत बैन।।
हम गुनी नव बाल अच्युत, तुम तरुन धन-रासि।
कैसेहूँ सुख-दान दीजै, बिरह-दारिद नासि।।
करहु यह जस प्रगट, त्रिभुवन निठुर-कोठी खोलि।
कृपा चितवनि भुज उठावहु, प्रेम-बचननि बोलि।।
दीन बानी स्रवन सुनि-सुनि द्रवे परम कृपाल।
सूर एकहूँ अँग न कांची, धन्य-धनि ब्रज-बाल।।1030।।