चित कौ चोर अबहिं जौ पाऊँ।
हृदयकपाट लगाइ जतन करि, अपने मनहिं मनाऊँ।।
जबहि निसक होति गुरुजन तै, तिहि औसर जौ आवै।
भुजनि धरौ भरि सुदृढ़ मनोहर, बहु दिन कौ फल पावै।
लै राखौ कुच बीच चाँपि करि, तन कौ ताप बिसारौ।
'सूरदास' नँदनंदन कौ गृह-गृह-डोलनि-स्रम टारौ।।1929।।