चित्तरंजन दास
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पूरा नाम | चित्तरंजन दास |
जन्म | विक्रमी संवत- 1927 (सन- 1870), कार्तिक शुक्ला द्वादशी |
जन्म भूमि | कलकत्ता, पश्चिम बंगाल |
मृत्यु | 16 जून, सन- 1924 |
मृत्यु स्थान | दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल |
अभिभावक | पिता- भुवन मोहन दास, माता- निस्तारिणी देवी |
पति/पत्नी | श्रीमती बंसती देवी[1] |
मुख्य रचनाएँ | ‘मालंच’ और ‘माला' |
विशेष योगदान | चित्तरंजन दास ईमानदारी और उदारता के प्रतीक थे। ये हर समय किसी-न-किसी की मदद करते रहते थे। इन्होंने मरने से पहले अपने रहने का घर भी एक वसीयतनामा बनाकर दान कर दिया था। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | श्री चित्तरंजन का साहित्यिक और राजनीतिक जीवन अत्यन्त गौरवपूर्ण था। उनकी प्रतिभा, तेजस्विता, मननशीलता, विचारशीलता, दृढ़ता, वाग्मिता, त्यागप्रियता आदि का इन दोनों क्षेत्रों में बड़ा ही अदभुत विकास हुआ था। लाखों रुपये की आय पर लात मारकर इन्होंने असहयोग-यज्ञ में सहर्ष आत्माहुति दे दी थी। |
चित्तरंजन दास को प्यार से 'देशबंधु' (देश के मित्र) कहा जाता था। ये महान राष्ट्रवादी तथा प्रसिद्ध विधि-शास्त्री थे। इन्हें सुप्रसिद्ध भारतीय नेता, राजनीतिज्ञ, वकील, कवि तथा पत्रकार के रूप में भी जाना जाता था। चित्तरंजन दास को पिता से ही ब्राह्मधर्म की शिक्षा मिली थी। यौवनकाल से ये ईश्वर में अविश्वास करने लगे थे। इनके ‘मालंच’ और ‘माला’ नामक काव्य से इसका स्पष्ट पता लगता है, परंतु धीरे-धीरे इनकी चित्तधारा का प्रवाह बदलता गया। इनके ‘अन्तर्यामी’ और ‘किशोर-किशोरी’ में शुद्ध भक्तिभाव की परिणति ओर परिपुष्टि हो गयी। अन्तिम जीवन में तो ये परम वैष्णव हो गये थे। भगवान के स्वरूपदर्शन के लिये इनका चित्त कितना तरस रहा था, इसका पता इनके निम्नलिखित पद के अनुवाद से मिलता है। यह देशबन्धु का अन्तिम पद है-
लो उतार अब ज्ञान-गठरिया, सहन नहीं होता यह भार।
सारा ही तन काँप उठा है, छाया चारों दिशि अँधियारा।।
वही सीस पर मोर मुकुट हो, कर में हो मोहन बाँसी।
ऐसी मूरति के दर्शन को प्राण बड़े हैं अभिलाषी।।
ललित त्रिभंग खड़े होकर हरि ! करो प्रकाश कुंज का द्वार।
आओ, आओ, पारस-मणि ! मम वृथा वेद-वेदान्त-विचार।।
परिचय
देशबन्धु भक्त श्री चित्तरंजन दास का जन्म कलकत्ते में संवत 1927 विक्रमी कार्तिक शुक्ला द्वादशी को हुआ था। इनके पिता का नाम भुवन मोहन दास और माता का नाम निस्तारिणी देवी था। श्री भुवन मोहन दास ब्राह्म हो गये थे, इससे उनमें विदेशी आचार-विचार आ गये थे; परंतु वे थे बड़े ही सदाशय, उदार कर्तव्यनिष्ठ, आडम्बरहीन तथा स्वजनवत्सल पुरुष। इसी प्रकार निस्तारिणी देवी भी अत्यन्त उदार हृदया थीं। वे पति के ब्राह्मधर्म का अनुसरण नहीं करती थीं। घर में जो हिंदू आत्मीय-स्वजनों के लिये अलग रसोई बनती थी, उसी में खाती थीं। खान-पान में तथा आचार-विचार में पति से मेल न खाने पर भी वे अत्यन्त पति-भक्ता थीं। उन्होंने मरते समय कहा- "जन्म-जन्म में मुझे भगवान यही पति और यही ‘चित्त’ पुत्र दें।"[2]
प्रारंभिक जीवन
चित्तरंजन बी. ए. परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सिविल सर्विस की परीक्षा देने विलायत गये। परंतु उसमें वे अनुत्तीर्ण हो गये। उन दिनों स्व. दादाभाई नौरोजी विलायत में पार्लियामेंट की सदस्यता के लिये खड़े हुए थे। उनके समर्थन में श्री चित्तरंजन ने कई स्थानों पर बड़ी ओजस्विनी वक्तृताएँ दी थीं। इन-जैसे प्रवासी भारतीय छात्रों की सहायता से दादाभाई पार्लियामेंट के सदस्य चुन लिये गये; परंतु कहते हैं कि इसी कारण आई.सी.एस. की परीक्षा में चित्तरंजन को असफल होना पड़ा। चित्तरंजन की इस असफलता से उनके घरवालों को खास करके पिता को बड़ा दु:ख हुआ; क्योंकि वे उस समय ऋणग्रस्त थे।
इसके बाद चित्तरंजन ने बैरिस्टरी पढ़ने के लिये ‘ग्रेस-इन’ में प्रवेश किया और उसमें उत्तीर्ण होकर वे भारत लौटे एवं उन्होंने 1893 ई. में कलकत्ता हाईकोर्ट में प्रवेश किया। प्रसिद्ध अलीपुर बम-केस में, जिसमें श्री अरविन्द अभियुक्त थे, श्री चित्तरंजन की प्रतिभा का विशेष प्रकाश हुआ। श्री अरविन्द उसमें बेदाग छूट गये। श्री चित्तरंजन की कीर्ति चारों ओर फैल गयी। प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता श्री विपिनचन्द्र पाल तथा कलकत्ते की प्रख्यात दैनिक पत्रिका ‘सन्ध्या’ के सम्पादक तेजस्वी वृद्ध श्री ब्रह्मबान्धव उपाध्याय आदि के मुकदमों में भी श्री चित्तरंजन ने बड़ी ख्याति प्राप्त की।
श्री चित्तरंजन का साहित्यिक और राजनीतिक जीवन अत्यन्त गौरवपूर्ण था। उनकी प्रतिभा, तेजस्विता, मननशीलता, विचारशीलता, दृढ़ता, वाग्मिता, त्यागप्रियता आदि का इन दोनों क्षेत्रों में बड़ा ही अदभुत विकास हुआ था। लाखों रुपये की आय पर लात मारकर इन्होंने असहयोग-यज्ञ में सहर्ष आत्माहुति दे दी थी, यह सभी जानते हैं।
ईमानदारी और उदारता
संसार के अनेकों ख्यातनामा पुरुष, जो अन्यान्य क्षेत्रों में आदर्श माने गये हैं, आर्थिक क्षेत्र में दुर्बलता के शिकार हो गये हैं। अर्थलोलुपता ने बड़े-बड़े लोगों को मार्गभ्रष्ट कर दिया। परंतु देशबन्धु चित्तरंजन इस क्षेत्र में भी सर्वत्र विजयी रहे। इन्हें अर्थलोभ तो मानो था ही नहीं। इनकी ईमानदारी और उदारता सर्वथा आदर्श हैं। इनके पिता ऋणग्रस्त होकर दिवालिया (Insolvent) हो गये थे। कानून के अुनसार इस ऋण का चित्तरंजन पर कोई दायित्व नहीं था। परंतु वृद्ध पिता के इस ऋणभार को इन्होंने अपने ऊपर ले लिया और रुपये हाथ में आने पर वर्षों बाद लगभग 68 हजार रुपये पितृ-ऋण के इन्होंने चुकाये। इनकी इस क्रिया का जस्टिस फ्लेवर, उस समय के आफिशियल असाइनी मि. ग्रे महोदय, समस्त कानूनजीवी समुदाय तथा समाज पर बड़ा ही प्रभाव पड़ा था। इसी प्रकार चित्तरंजन बड़े दानवीर थे। उनका विशाल हृदय श्रान्त–क्लान्त पथिकों को आश्रय देने वाले परोपकार परायण वृक्ष की भाँति दूसरों के लिये सदा ही प्रस्तुत रहता था। जिस समय वे स्वयं अर्थकष्ट में थे, उस समय भी दीनों-दु:खियों और अभाव पीड़ितों के आश्रय थे। उनके पिता ने अपने शेष जीवन में पुरुलिया में जो मकान बनाया था, चित्तरंजन की उदारता से वह उनकी अविवाहिता बहिन अमला दासगुप्त के परिचालन में ‘अनाथाश्रम’ में परिणत हो गया था। इसके लिये उनको मासिक दो हजार रुपये और व्यय करने पड़ते थे। नवद्वीप के नित्यानन्द धाम तथा मातृ मन्दिर में ये सदा सहायता करते रहते। पण्डित कुलदाप्रसन्न मल्लिक भागवतरत्न ने बतलाया था कि ‘नित्यानन्द–आश्रम के लिये चित्तरंजन ने दो लाख रुपये दिये थे। इस बात को उनके घरवाले भी नहीं जानते थे।' संस्थाओं में इन्होंने कितना दान किया, इसका हिसाब बताना संभव नहीं है। श्री चित्तरंजन में एक विशेषता थी। संस्थाओं में दान करने वाले लोग आजकल बहुत मिलते हैं, परंतु गुप्त व्यक्तिगत सहायता लोग प्राय: नहीं करते। परंतु चित्तरंजन को ऐसी सहायता में बड़ा रस आता और वे बड़ी उदारता के साथ इस रस का आस्वादन किया करते थे। एक बहुत बड़े पुरुष ने इनसे एक बार कहा- "दास बाबू ! आप जो असंख्य लोगों को इतना दान करते हैं, क्या वे सभी दान के पात्र हैं? आपकी उदारता से लोग बहुत अनुचित लाभ उठाते हैं और आप ठगे जाते हैं।" दास बाबू ने हँसकर उत्तर दिया- "ठीक है, कुछ लोग ऐसा लाभ उठाते होंगे; पर मैं कभी ठगा नहीं जाता। मेरी जगह आप होते तो आप अवश्य ठगे जाते; क्योंकि आपकी ऐसी भावना है। मेरा तो एक-एक पैसा भगवान की सेवा में लगता है। फिर यदि मैं पात्रों के चुनाव में लग जाऊँगा, तो उनके दोष-गुणों में ही मेरा मन रम जायगा; दान का अवसर ही मुझको कैसे मिलेगा।"
- इनकी उदारता की कुछ ही बातें लोग जान पाते थे; क्योंकि इनके ऐसे दान प्रचुरमात्रा में होने पर भी होते थे गुप्त ही। ऐसी सहस्त्रों घटनाओं में से दो-एक यहाँ देखिये-
- एक विधवा गरीब स्त्री अपनी कन्या के विवाह में सहायता प्राप्त करने के लिये इनके पास आयी। इन्होंने पूछा- "आपके कितने रुपये चाहिये?" विधवा ने कहा- "कुल सात सौ रुपये की आवश्यकता है, उसमें तीन सौ रुपये तो मैंने घर-घर घूमकर इकट्ठे किये हैं।" चित्तरंजन बीच में ही बोल उठे- "अच्छा, वे तीन सौ आप अपने पास रखिये, पीछे भी तो खर्च लगेगा, ये सात सौ रुपये ले जाइये।'
- एक सज्जन को किसी कार्य के लिये दो सौ पचास रुपये की आवश्यकता थी, वे चित्तरंजन के पास आये। इन्होंने पूछा- ‘कितने हो गये?’ उन्होंने कहा- 'अमुक प्रसिद्ध बैरिस्टर महोदय ने पचास रुपये दिये हैं।' उसी क्षण ये बोल उठे- ‘बाकी दो सौ मैं दूँगा, आपको कहीं जाना नहीं पड़ेगा।' जब चेक दिया, तब दो सौ पचास रुपये का था। उक्त सज्जन ने कहा- 'दो सौ पचास रुपये क्यों? इन्होंने कहा- ‘ये पचास रुपये जिन नौकर-चाकरों ने काम किया है, उनके इनाम के लिये हैं।'
लोगों की सहायता
डुमराँव-केस में बहुत बड़ी रकम इन्हें मिली थी, पर सब-की-सब दान में दे दी गयी। किसी को रेल भाड़े के लिये, किसी को कर्ज चुकाने के लिये, किसी को कन्या के विवाह के लिये, किसी को पढ़ाई या परीक्षा के लिये, किसी को बूढ़े माता-पिता के लिये, किसी को रोगी की दवा और सेवा-शुश्रुषा के लिये आवश्यकता होती और सभी की आवश्यकता चित्तरंजन को पूर्ण करनी चाहिये।
इनकी सहायता का एक तरीका यह था कि जब ये देखते कि अमुक व्यक्ति अभाव में है पर वह लगा नहीं, तब उसे किसी काम से बाहर भेज देते और खर्च के लिये सौ-दो-सौ रुपये दे देते; काम होता पंद्रह-बीस रुपये के खर्च का। वह जब हिसाब देकर रुपये लौटाने आता, तब आप सुनी-अनसुनी करके या काम का बहाना बनाकर और कही-कहीं तो गुस्सा दिखाकर उसे लौटा देते।
चित्तरंजन दास की विरासत
असहयोग-आन्दोलन में पड़ जाने के बाद इन्हें अर्थ की सुविधा नहीं रही थी वरं आगे चलकर इन्हें अर्थकष्ट हो गया था। परंतु उस समय भी ये जैसे-तैसे सेवा करने से नहीं चूकते थे। मृत्यु के कुछ दिनों पूर्व इन्होंने अपनी अँगूठी बेचकर एक कन्या की विधवा माता को उसके विवाह के लिये छ: सो रुपये दिये थे। यहाँ तक कि मरने से पहले अपने रहने का घर भी एक वसीयतनामा बनाकर दान कर दिया था। शर्त थी कि ‘मकान-जमीन बेचकर पहले ऋण चुकाया जाय और बची हुई रकम से- 1. मन्दिर-निर्माण- (मूर्ति की स्थापना और उसकी दैनिक और सामयिक सेवा की व्यवस्था), 2. भारत-नारी की शिक्षा, 3. हिंदू-बालकों को धार्मिक शिक्षा, 4. मातृमन्दिर की स्थापना और 5. दरिद्र तथा दु:खी भारतवासियों की सहायता अथवा अन्य कोई ऐसा ही कार्य- ये काम किये जायँ। श्री विधानचन्द्र राय, श्री निर्मलचन्द्र चन्द्र, श्री तुलसी चन्द्र गोस्वामी, श्री सत्यमोहन घोषाल और श्री नलिनीरंजन सरकार इस वसीयत के ट्रस्टी बनाये गये थे। इस प्रकार ये तन, मन, धन, परिजन, प्रतिष्ठा, घरद्वार- सभी कुछ भगवान के अर्पण करके सच्चे फकीर बन गये थे।
परमधाम यात्रा
सन 1924 की ता. 16 जून मंगलवार को दार्जिलिंग में इस महान भक्त ने परमधाम की यात्रा की।[2]
संबंधित लेख
- ↑ योगिराज श्रीकृष्ण |लेखक: लाला लाजपतराय |अनुवादक: मास्टर हरिद्वारी सिंह बेदिल |प्रकाशक: विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 14 |
- ↑ 2.0 2.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 795
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