चितैबौ छाँड़ि दै री राधा।
हिल-मिलि खेलि स्याम सुंदर सौं, करति काम कौ बाधा।
कै बैठी रही भवन आपनैं, काहे कौं बनि आवै।।
मृग-नैनी हरि कौ मन मोहति, जब तू देखि दुहावै।
कबहुँक कर तैं गिरति दोहिनी, कबहुँक बिसरति नोई।।
कबहुँक वृषभ दुहत हैं मोहन, ना जानौं का होई।।721।।