चावभरे चित चँवर डुलाती अविरत नित कर-कमल उदार।
दूत-पण्डिता, विविध कलाओं से करती सुन्दर सिंगार॥
सखी ’रङ्गदेवी’ बसती अति रुचिर निकुञ्ज, वर्ण जो श्याम।
कान्ति कमल-केसर-सी शोभित जवा-कुसुम-रँग वसन ललाम॥
नित्य लगाती रुचि कर-चरणों में यावक अतिशय अभिराम।
आस्था अति त्यौहार-व्रतों में, कला-कुशल शुचि शोभाधाम॥
सखी ’तुङ्गविद्या’ अति शोभित कान्ति चन्द्र, कुंकुम-सी देह।
वसन सुशोभित पीत वर्ण वर, अरुण निकुञ्ज, भरी नव नेह॥
गीत-वाद्यसे सेवा करती अतिशय सरस सदा अविराम।
नीति-नाट्य-गान्धर्व-शास्त्र-निपुणा रस-आचार्या अभिराम॥
सखी ’सुदेवी’ स्वर्ण-वर्ण-सी, वसन सुशोभित मूँगा-रङ्ग।
कुञ्ज हरिद्रा-रंग मनोहर, करती सकल वासना भङ्ग॥
जल निर्मल पावन सुरभित से करती जो सेवा अभिराम।
ललित लाड़िली की जो करती वेणी-रचना परम ललाम॥