चले हरि धर्मसुवन के देस -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू



चले हरि धर्मसुवन के देस।
संतन हित भू भार उतारन, काटन बंदि नरेस।।
जब प्रभु जाइ संखधुनि कीन्ही, होत नगर परबेस।
सुनि नृपबंधु सहित उठि धाए, झारत पद रज केस।।
आसन दै भोजन बिधि पूछी, नारद सभा सुदेस।
तच्छन भीम धनंजय माधौ, धरयौ बिप्र कौ भेस।।
पहुँचे जाइ राजगिरि द्वारै, घुरे निसान सुदेस।
माँग्यौ जुद्धहिं जरासिंधु पै, छत्री कुल आवेस।।
जरासंध कौ जुद्ध अर्थ, बल रहत न छत्री लेस।
‘सूरज’ प्रभु दिन सात बीस मैं, काटे सकल कलेस।। 4214।।

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