चकित भई ग्वालिनि-तन हेरौ।
माखन छाँड़ि गई मथि वैसैंहि, तब तैं कियौ अबेरौ।
देखै जाइ मटुकिया रीती, मैं राख्यौ कहुँ हेरि।
चकित भई ग्वालिनि मन अपनैं, ढूँढति घर फिरि फेरि।
देखति पुनि-पुनि घर के बासन, मन हरि लियौ गोपाल।
सूरदास रस भरी ग्वालिनी, जानै हरि कौ ख्याल।।271।।