घनानन्द

घनानन्द
घनानन्द
पूरा नाम घनानन्द
जन्म संवत 1746 (1689 ई.) के लगभग
मृत्यु संवत 1796 विक्रमी (1739 ई.)
कर्म भूमि ब्रजभूमि
मुख्य रचनाएँ ‘सुजान-सागर’।
भाषा ब्रजभाषा
प्रसिद्धि कृष्ण भक्त
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख श्रीकृष्ण, ब्रज, वृन्दावन
अन्य जानकारी घनानन्द की रचनाओं में प्रेम का अत्यंत गंभीर, निर्मल, आवेगमय और व्याकुल कर देने वाला उदात्त रूप व्यक्त हुआ है, इसीलिए घनानंद को साक्षात रसमूर्ति कहा गया है।

घनानन्द भगवान श्रीकृष्ण की सरस लीलाओं के प्रेमी थे। उनकी रचनाओं में प्रेम का अत्यंत गंभीर, निर्मल, आवेगमय और व्याकुल कर देने वाला उदात्त रूप व्यक्त हुआ है, इसीलिए घनानंद को साक्षात रसमूर्ति कहा गया है। घनानंद के काव्य में भाव की जैसी गहराई है, वैसी ही कला की बारीकी भी। उनकी कविता में लाक्षणिकता, वक्रोक्ति, वाग्विदग्धता के साथ अलंकारों का कुशल प्रयोग भी मिलता है। उनकी काव्य-कला में सहजता के साथ वचन-वक्रता का अद्भुत मेल है। घनानन्द की भाषा परिष्कृत और साहित्यिक ब्रजभाषा है।

परिचय

घनानन्द का जन्म संवत 1746 (1689 ई.) के लगभग हुआ था। वे भटनागर कायस्थ थे। फ़ारसी, ब्रजभाषा और संस्कृत साहित्य में उनकी विशेष अभिरुचि और पहुँच थी। पहले वे मुग़ल बादशाह के राज कार्यालय में एक साधारण अधिकारी थे। पर बाद में अपनी कार्यदक्षता, स्वामिभक्ति और परिश्रम के प्रभाव से वे बादशाह मुहम्मदशाह के ‘खास कलम’ हो गये। काव्य और संगीत का उन्हें अच्छा अभ्यास था। उनकी कविता बड़ी सरस, मधुर और भक्तिपूर्ण होती थी। आरम्भ से ही वे भगवान श्रीकृष्ण की सरस लीलाओं के प्रेमी थे।

ब्रज आगमन

श्रीनन्दकुमार के दरबार का आश्रय ही घनानन्द के लिये परम मान्य था। वे उच्च कोटि के प्रेमी थे। लौकिक प्रेम को अलौकिक, सर्वथा दिव्य अथवा ईश्वरीय बनाने में उन्होंने जो सफलता पायी, वह भक्ति-जगत की एक अत्यन्त मौलिक और अपूर्व देन है। पहले वे ‘सुजान’ नामक एक वेश्या के रूप और सौन्दर्य पर आसक्त‍ थे। पर बाद में उन्होंने अपनी आसक्ति भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति के चरणों पर समर्पित कर दी। उनके जीवन में एक अभूतपूर्व घटना हुई- वे मुहम्मदशाह की राजसभा में बैठे हुए थे। कुछ दरबारियों ने बादशाह से कहा कि- "घनानन्द बहुत अच्छा गाते हैं।" बादशाह के कहने पर घनानन्द ने नहीं गाया, पर सुजान वेश्या के कहने पर उन्होंने उसी की ओर मुख करके गाया। सारी सभा में आनन्द छा गया। बादशाह ने उनकी प्रशंसा की, पर आज्ञा-अवहेलना के अपराध में उनको राजधानी से बाहर निकाल दिया। घनानन्द तो नन्द कुमार की छवि पर बिक चुके थे। देशपति रूठे तो रूठ जाय, पर ब्रजराज न रूठें। बादशाह के उच्चाधिकारी ने संसार की माया का त्याग कर दिया। वे चल पड़े ब्रज की ओर। भगवान राधारमण की लीला-भूमि में पहुँच ही गये।

कालिन्दी के नीले जल को देखकर नीलमणि नन्दनन्दन का स्मरण हो आया। नयनों में जल उमड़ पड़ा, उनके प्राण कलप उठे, अधरों ने कण्ठ की वाणी का भाष्य किया।

"गुरनि बतायौ, राधा मोहन हू गायौ
सदा सुखद सुहायौ बृंदाबन गाढ़े गहि रे।
अदभुत अभूत महिमंडन परे ते परे,
जीवन कौ लाहु हाहा क्यौं न ताहि लहि रे।।
आनँद कौ घन छायौ रहत निरंतर ही
सरस सुदेय सों पपीहा पन बहि रे।
जमुना के तीर केलि कोलाहल भीर,
ऐसे पावन पुलिन पै पतित! परि रहि रे।।"

भगवान का वियोग-श्रृंगार

जगत के नयनों में पतित और भगवान के नयनों में परम पावन घनानन्द ने रासस्थली-वंशीवट के मनोरम क्षेत्र में धरना देकर रासेश्वर के दर्शन की इच्छा की। वे समय-समय पर भगवान को वियोग-श्रृंगार से सजाया करते थे। आकाश में उमड़ते बादलों को देखकर अनुनयपूर्वक कहा करते कि- "तुम मेरे नयनों के अश्रु-जल को सुजान घनश्याम के अँगने में बरसा दो।" कभी-कभी चातक की तरह प्रियतम को सम्बोधन कर कह उठते थे-

"आरतवंत पपीहन कों घनआनँद जू पहिचानौ कहा तुम।"

प्रेम की गूढ़ से गूढ़ अन्त:र्दशा की सूक्ष्मता का परिचय उनकी उक्ति में अच्छी तरह मिलता है। वे प्राय: वंशीवट के निकट वृक्ष के ही तले रहा करते थे। कभी-कभी समाधि में दो-तीन दिन बीत जाते थे। ब्रजवास काल में ही उन्होंने ‘सुजान-सागर’ की रचना की। वे 'निम्बार्क सम्प्रदाय' में दीक्षित थे।

मृत्यु

संवत 1796 विक्रमी (1739 ई.) में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया। वृन्दावन में नादिरशाह के सिपाहियों ने बादशाह मुहम्मदशाह के ‘खास कलम’ को फक्कड़ के वेष में देखकर ‘जर, जर, जर’ कहा। खजाना मांगा। घनानन्द के पास सिवा ब्रज की रज के और कुछ भी नहीं था। उन्होंने तीन बार ‘रज, रज, रज’ कहा और उनके ऊपर ब्रजरज डाल दिया। सिपाहियों ने उनका दाहिना हाथ काट डाला। विरही घनानन्द‍ के प्राण सुजान नन्दलाल के विरह में चीख उठे। उनकी काव्य भारती ने करुण-स्वर में गाया-

"अधर लगे हैं आनि करि कै पयान प्रान
चाहत चलन ये सँदेसौ लै सुजान कौ।।"

उन्होंने पूरा छन्द अपने खून से तकिये पर लिखा। सैनिकों ने थोड़े समय के बाद उन्हें जान से मार डाला। अन्तिम समय में भी विरही ने घनश्याम को ही पुकारा।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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