गोविंद गाढ़े दिन के मीत।
गज अरु ब्रज प्रहलाद द्रौपदी सुमिरत ही निहचित।
लाखागृह पांडवनि उबारे, साक-पत्र मुख नाए।
अंबरीष-हित साप निवारे, ब्याकुल चले पराए।
नृप-कन्या कौ व्रत प्रतिपारयौ, कपट वेष इक धारयौ।
तामैं प्रगट भए श्रीपति जू, अरि-गन-गर्ब प्रहारयौ।
कोटि छयानबै नृप-सेना सब जरासंध बँध छोरे।
ऐसे जन परतिज्ञा राखत, जुद्ध प्रगट करि जोरे।
गुरु-बांधव-हित मिले सुदामहिं, तंदुल पुनि पुनि जाचत।
भगत बिरह कौ अतिहीं कादर, असुर-गर्व-बल नासत।
संकट-हरन-चरन हरि प्रगटे, बेद बिदित जस गावै।
सूरदास ऐसे प्रभु तजि कै, घर घर देव मनावै।।31।।