गोरा कुम्हार

गोरा कुम्हार ज्ञानेश्‍वरकालीन भक्‍तों में उम्र में सबसे बड़े थे। ये बड़े ही विरक्त, ज्ञानी और प्रेमी भक्त थे।

परिचय

गोरा कुम्हार का जन्‍म तेरढोकी नामक स्‍थान में संवत 1324 (1267 ई.) में हुआ था। इन्‍हें सब लोग ‘चाचा’ कहा करते थे। ये बड़े विरक्‍त, दृढ़निश्‍चयी, ज्ञानी तथा प्रेमी भक्त थे। इनकी दो स्त्रियां थीं।

भजन तल्लीनता

गोरा कुम्हार का भजनानन्‍द में तल्‍लीन होना ऐसा था कि एक बार इनका एक नन्‍हा बच्‍चा इनके उन्‍मत्‍त नृत्‍य में पैरों तले कुचलकर मर गया, पर इन्‍हें इसकी कुछ भी सुध न हुई। इससे चिढ़कर इनकी सहधर्मिणी संती ने इनसे कहा कि- "अब आज से आप मुझे स्‍पर्श न करें।" तब से इन्‍होंने उन्‍हें स्‍पर्श करना सदा के लिये त्‍याग ही दिया। संती को बड़ा पश्‍चाताप हुआ और बड़ी चिन्‍ता हुई कि "इन्‍हें पुत्र अब कैसे हो और कैसे इनका वंश चले?" इसलिये उन्‍होंने अपनी बहन रामी से इनका विवाह करा दिया। विवाह के अवसर पर श्‍वसुर ने इन्‍हें उपदेश किया कि- "दोनों बहनों के साथ एक सा व्‍यवहार करना।" बस, इन्‍होंने नव-विवाहिता को भी स्‍पर्श न करने का निश्‍चय कर लिया। एक रात को दोनों बहनों ने इनके दोनों हाथ पकड़कर अपने शरीर पर रखे। इन्‍होंने अपने इन दोनों हाथो को पापी समझकर काट डाला। इस तरह की कई बातें गोरा कुम्हार के विषय में प्रसिद्ध हैं।

ज्ञानेश्वर-नामदेव का आगमन

काशी आदि की यात्राओं से लौटते हुए ज्ञानेश्‍वर-नामदेव आदि भक्त इनके यहाँ ठहर गये थे। सब भक्त एक साथ बैठे हुए थे। पास ही कुम्हार की एक थापी पड़ी हुई थी। उस पर मुक्‍ताबाई की दृ‍ष्टि पड़ी। उन्‍होंने पूछा- "चाचा जी! यह क्‍या चीज है?" गोरा जी ने उत्‍तर दिया- "यह थापी है, इससे मिट्टी के घड़े ठोंककर यह देखा जाता है कि कौन घड़ा कच्‍चा है और कौन पक्‍का।" मुक्‍ताबाई ने कहा- "हम लोगों की भी कच्‍चाई-पक्‍काई मालूम हो सकती है?" गोरा जी ने कहा- "हां, हां, क्‍यों नहीं।" यह कहकर उन्‍होंने थापी उठाई और एक-एक भक्त के सिर पर थपकर देखने लगे। दूसरे भक्त तो यह कौतुक देखने लगे, पर नामदेव बिगड़े। उन्‍हें यह भक्‍तों का और अपना भी अपमान जान पड़ा। गोरा जी थपते-थपते जब इनके पास आये तो इनको बहुत बुरा लगा। गोरा जी ने इनके भी सिर पर थापी थपी और बोले- "भक्‍तों में यह घड़ा कच्‍चा है", और नामदेव से कहने लगे- "नामदेव! तुम भक्त हो, पर अभी तुम्‍हारा अहंकार नहीं गया। जब तक गुरु की शरण में नहीं जाओगे, तब तक ऐसे ही कच्‍चे रहोगे।"

नामदेव को बड़ा दु:ख हुआ। वे जब पण्‍ढरपुर लौट आये, तब उन्‍होंने श्रीविट्ठल से अपना दु:ख निवेदन किया। भगवान ने उनसे कहा- "गोरा जी का यह कहना तो सच है कि श्रीगुरु की शरण में जब तक नहीं जाओगे, तब तक कच्‍चे रहोगे। हम तो तुम्‍हारे सदा साथ हैं ही, पर तुम्‍हें किसी मनुष्‍य देहधारी महापुरुष को गुरु मानकर उसके सामने नत होना होगा। उसके चरणों में अपना अहंकार लीन करना होगा।" भगवान के आदेश के अनुसार नामदेव जी ने श्रीविसोबा खेचर को गुरु माना और गुरुपदेश ग्रहण किया। इस प्रकार गोरा जी कुम्‍हार बड़े अनुभवी, ज्ञानी, भक्त थे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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