गोरस लेहु री कोउ आइ।
द्रुमनि सौं यह कहति डोलतिं, कोउ न लेइ बुलाइ।।
कबहुँ जमुना-तीर कौं सब, जाति हैं अकुलाइ।
कबहुँ बंसीबट-निकट जुरि, होति ठाढ़ी धाइ।।
लेहु गोरस-दान मोहन, कहाँ रहे छपाइ।
डरनि तुम्हरैं जातिं नाहीं, लेत दह्यौ छड़ाइ।।
माँगि लीजै दान अपनौ, कहति हैं समुझाइ।
आइ पुनि रिस करत हौ हरि, दह्यौ देत बहाइ।।
एक एकहिं बात बूझति, कहाँ गए कन्हाइ।
सूर प्रभु कै रंग राँची, जिय गयौ भरमाइ।।1625।।