गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 6

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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नेमं विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्यंगसंश्रया।
प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत् प्राप विमुक्तिदात्।।[1]

ब्रह्मा, शिव और सदा हृदय में रहने वाली लक्ष्मी जी ने भी मुक्तिदाता भगवान् का वह दुर्लभ प्रसाद नहीं पाया जो प्रेमिका श्रेष्ठ गोपिकायों को मिला।‘ इसी प्रकार ज्ञानि श्रेष्ठ उद्धवजी कहते हैं-

नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेः प्रसाद
स्वर्योतिषितां नलिनगन्धरूचां कुतोऽन्याः।
रासोत्सवेऽस्य भुजदण्डगृहीतकण्ठ-
लब्धाशिषां य उदगाद् व्रजवल्लवीनाम्।।[2]

‘रासोत्सव के समय भगवान् के भुजदण्डों को गले में धरण कर पूर्णकामा व्रज की गोपियों को श्रीहरि का जो दुर्लभ प्रसाद प्राप्त हुआ था, वह निरन्तर भगवान् के वक्षःस्थल में निवास करने वाली लक्ष्मी जी को और कमल की-सी कान्ति और सुगन्ध से युक्त सुरसुन्दरियों को भी नहीं मिला, फिर दूसरे की तो बात ही क्या है?‘ सूरदास जी कहते हैं-

बनी सहज यह लूट हरिकेलि गोपीनके
सुपनें यह कृपा कमला न पावे।
निगम निरधार त्रिपुरारहू बिचार रह्यो,
पचि रह्यो सेस नहिं पार पावे।।
किंनरी बहुर अरु बहुर गंधरबनी,
पन्नगनी चितवन नहिं माँझ पावें।।
देत करताल वे लाल गोपालसों,
पकर वे ब्रजलाल कपि ज्यों नचावें।।

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  1. (श्रीमद्भा0 10 । 9 । 20)
  2. (श्रीमद्भा0 10 । 47 । 60)

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