गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार
वे बोली- धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्रयब्जरेणवः। ‘भगवान् श्रीगोविन्द की चरणरज अत्यन्त पवित्र है। ब्रह्मा, शिव, रमा आदि भी इसको मस्तक पर धारणा करते हैं, हम लोग भी इसे मस्तक पर धारण करें।‘ यों कहते-कहते वे श्रीकृष्ण में तन्मय होकर श्रीकृष्ण की -सी लालाएँ करने लगीं। इहि बिधि बन-बन ढूँढ़ि बूझि उनमतकी नाईं। तदनन्तर पुनः भगवान् ने प्रकट होकर प्रत्येक के साथ एक-एक अलग-अलग बनकर रास किया। रास का पहला श्लोक है- भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः। ‘भगवान् ने योगमाया को आश्रित करके रमण की इच्छा की। इसके बाद‘ आत्मारामोऽप्यरीरमत्‘ (आत्माराम होकर रमण किया), ‘ साक्षान्मन्मथमन्मथः‘ (कामदेव को भी मोहने वाले), ‘ आत्मनयवरूद्धसौरतः‘ (अस्खलित वीर्य) आप्तकाम, सत्यकाम, पूर्णकाम, योगेश्वरेश्वर आदि शब्द आते हैं, जिसे यह सिद्ध होता है कि भगवान् की यह लीला परम दिव्य थी। इसमें लौकिक कामगनध को जरा-सा स्थान नहीं है।‘ भगवान्‘ शब्द से ही सिद्ध होता है कि भगवान् में औपपत्य नहीं हो सकता, क्योंकि वे सबके आत्माराम हैं। |
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