गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 616

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 19

‘मध्ये मणीनां हैमानामहामरकतो यथा’ जैसे बहुत-सी सुवर्ण-मणियों के बीच नीलवर्णा महामरकत मणि देदीप्यमान होती है, वैसे ही, गोपांगनाओं के मध्य में श्रीकृष्ण देदीप्यमान हुए। प्रत्येक गोपांगना ने यही अनुभव किया कि अपने विचित्र नृत्य-कौशल के कारण ही परमानन्द योगेश्वर श्रीकृष्ण यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रतिभासित होते हुए भी यथार्थतः मेरे ही सन्निधान में, मेरे ही आलिंगन में आबद्ध हैं। ‘अघटितघटनासामर्थययोगः’ अघटित-घटना-सामर्थ्य ही योग है; योग का नियामक सर्वान्तरयामी ही ईश्वर है; भगवान् श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं।

बारम्बार कहा जा चुका है कि साक्षात् परात्पर परब्रह्म ही आनन्दकन्द परमानन्द श्रीकृष्णचन्द्र स्वरूप में आविर्भूत है, नित्य निकुन्जेश्वरी रासेश्वरी राधारानी श्रीकृष्ण परमानन्द सुधा-सिंधु की माधुर्य सार-सर्वस्व हैं, गोपांगनाएँ उस सिंधु की तरंग हैं। भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। ‘आत्मा तु राधिका प्रोक्ता’ राधिका ही श्रीकृष्ण की आत्मा है। एतावता तद्भिन्न की कल्पना भी सम्भव नहीं होती, तथापि ‘रसवो रसनीया’ इस रीति से ही रस का आस्वादन सम्भव है। ऐश्वर्यानुभूति से माधुर्य-भाव प्रावरित हो जाता है, फलतः स्वाभाविक गूढ़ानुरागरस अनभिव्यक्त रह जाता है अतः आनुगुण्य सम्पत्ति हेतु ही तत्त्व में भी अत्यन्त लौकिकता की अभिव्यक्ति अपेक्षित है।

श्रीमद्भागवत-वाक्य है,

'ग्राम्यै: समं ग्राम्यवदीशचेष्टित:'[1]

उन ग्रामीण गोपालियों के मध्य में आनन्दकन्द, परमानन्द, सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमानन्द श्रीकृष्ण भी तद्वत् ग्रामीण गोप-कुमार-स्वरूप में ही आविर्भत हुए। अपनी अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायकता, सर्वेश्वरता, सर्वज्ञता आदि ऐश्वर्ययुक्त स्वरूप को भूलकर निकृष्टातिनिकृष्ट प्राणी के साथ तादात्म्यापन्न हो अभेद व्यवहार के अधिष्ठान बन जाना भगवत्-सौशील्य की ही अभिव्यंजना है। भक्तिसंयुक्त निर्मल चित्त से ही भगवद-लीला के वास्तविक रस का आस्वादन सम्भव है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10/15/19

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