गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 19माता के मणिमय प्रांगण में अपने ही बालस्वरूप की छवि निहारकर भगवान् स्वयं भी नाच उठते हैं, ‘नाचहिं निज प्रतिबिम्ब निहारी’ प्रेमोन्मादजन्य नृत्य ही यथार्थतः नृत्य है। सामान्यतः शिष्टाचारपरक नियम है कि वर्णाश्रमी को नृत्य करना तो दूर, देखना भी नहीं चाहिए। इस कथन की यथार्थता सीमा-पुरस्सर लोक व्यवहार दृष्ट्या ही है। भगवान् के लोकोत्तर प्रेम में उन्मत्त होकर भगवान् की मधुर मनोहर मंगलमयी मूर्ति को ध्यान कर उनके मंगलमय श्रीअंग की लोकोत्तर मधुरता, सुन्दरता, सरसता का आस्वादन करते हुए प्रेमोन्माद में नाच उठना विशिष्ट उन्नत मनःस्थिति का ही परिणाम है। भूत-भावन भगवान् विश्वनाथ स्वयं नटराज हैं। उनके अलौकिक नृत्य को देखने के लिये भगवान विष्णु स्वयं पधारते हैं। दक्षिण में प्रथा है कि प्रदोष काल के पूर्व ही वैष्णव-मन्दिरों के पट बन्द हो जाते हैं क्योंकि भगवान विष्णु भूत-भावन विश्वनाथ सदाशिव के ताण्डव-नृत्य के दर्शनार्थ चले जाते हैं। ‘चूडामणीकृतविधुर्वलयीकृतवासुकिः। अर्थात, चन्द्रमा का चूड़ामणि, वासुकि नाग का कंकण तथा हस्ती के चर्म का परिधान धारण कर गौरवर्ण तेजोमय, प्रकाशस्वरूप लीला-विशारद भूत-भावन भगवान् विश्वनाथ ताण्डव करते हैं; यह अद्भुत नृत्य राजराजेश्वरी गौरी पराम्बा त्रिपुरसुन्दरी के सम्मुख होता है। सम्पूर्ण देवगण ही उस नृत्य के परिषद् हैं। प्रेमोन्मादजन्य नृत्य लोकोत्तर दिव्य एवं महामहिम है। भगवान् श्रीकृष्ण नटवर हैं; ‘नटेभ्योऽपि नटराजेभ्योऽपि नटराजराजेभ्योऽपि वरं वपुर्यस्य’ नट, नटराज, नटराजराज सबमें सर्वश्रेष्ठ वपु है जिसका, वे श्रीकृष्णचन्द्र ही नटवर वपु हैं। ऐसे नटवर वपु श्रीकृष्णचन्द्र का रासलीला-नृत्य अद्भुत अलौकिक एवं दिव्य है; ‘यं मन्येरन् नभस्तावद् विमानशतसंकुलम्’ उस अद्भुत रासलीला के दर्शनार्थ ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, वरुण आदि देवाधिदेवगण भी अपने-अपने विमानों में बैठकर आकाश में मँडराने लगे; उन देवाधिदेवों को भी उस अद्भुत रहस्यात्मक रासलीला का सम्पूर्णतः दर्शन नहीं हुआ, ‘यावत् द्रष्टव्य यावत् विषयगोचर’ जिसके लिए जितना द्रष्टव्य था उसके तावदंश का ही दर्शन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मुक्तावलिः 1