गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 18‘ब्यापक ब्रह्म निरंजन, निर्गुन विगत विनोद। व्यापक निरंजन निर्गुण विगत विनोद ब्रह्म भी भक्त-प्रेमवश मंगलमयी अम्बा कौशल्या के अंक में राघवेन्द्र रामचन्द्र और नन्दरानी यशोदा की मंगलमयी गोद मे आनन्दकन्द श्रीकृष्णचंद्र स्वरूप में प्रकट हो गया। जैसे एक ही स्वाती बिन्दु सोपी, सर्प, बाँस एवं गजकर्ण आदि विभिन्न अधिष्ठानों में मोती, विष, वंशलोचन एवं गजमुक्ता रूप से व्यक्त होता है वैसे ही, एक ही परात्पर परब्रह्म भी विभिन्न अधिष्ठानों में भिन्न-भिन्न स्वरूपों में प्रकट होते हैं। अतः प्रकट लीला में धाम का भी विशेष महत्त्व है। एतावता, काशीपुरी, अयोध्यापुरी, श्रीमद्वृन्दावनधाम आदि विशिष्ट स्थानों का विशेष माहात्म्य है। इन विशिष्ट स्थानों में सर्वशक्तिमान प्रभु का प्राकट्य विशेष रूप से होता है। जैसे नेत्र-गोलक में ही नेत्र-इन्द्रिय रहती है किन्तु वस्तुतः सूक्ष्म अतीन्द्रिय में ही उसका प्राकट्य होता है; फिर भी, सम्पूर्ण नेत्र -गोलक ही नेत्रेन्द्रिय कहलाता है इसी तरह श्री वृन्दावन-धामरूप् गोलक में भी सूक्ष्म नित्य वृन्दावन-तत्त्व सहज ही प्रकट हो जाता है अतः सम्पूर्ण धाम ही की विशिष्टता मान्य होती है। वेद-स्तुतियों में भी अनेक ऐसे प्रसंग आते हैं जिनके आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवत्-परायण अमलात्मा परमहंस महामुनीन्द्रजनों ने भी ‘विशेष महिमा-महिण्डत पवित्र तीर्थ-स्थानों में निवास को उत्तम जानकर विभिन्न तीर्थों का सेवन किया है। ऐसे ही एक काशी-निवासी महात्मा से हम भी परिचित हैं। यहाँ एक कोई दण्डी स्वामी थे। अनेक ग्रन्थ उनको कण्ठस्थ थे। लोगों ने उनसे प्रश्न किया, “महाराज! आप तो ज्ञानी हैं, स्वयं मुक्ति-स्वरूप हैं। आप जहाँ भी देह-त्याग करेंगे तो आपको मुक्ति प्राप्त होगी, फिर आपकी काशीवास की स्पृहा क्यों हैं?” महात्मा ने हँसते हुए उत्तर दिया, “भैया! मल-मूत्र-त्याग के लिए भी उपयुक्त स्थान की खोज की जाती है, तो फिर जिस शरीर से हमारा इतना कल्याण हुआ, ज्ञान-विज्ञान की, भगवत्-पद की प्राप्ति हुई, उसे क्या हर कहीं ही त्याग देना समीचीन होगा? हम पर उपकार करने वाले इस शरीर का भी पवित्र स्थान पर ही विर्सजन करना चाहिए, ऐसा विचार कर ही मैं काशी में रह रहा हूँ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, बाल० 198