गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16जैसे तैजस चक्षु तैजस गुण को, आकाशीय श्रोत्र आकाशीय-गुण शब्द को, वायवीय-त्वक् वायवीय-गुण स्पर्श को, अनायासेन ही ग्रहण कर लेते हैं वैसे ही साधक के आराधना-संस्कृत देह, मन, बुद्धि एवं अहंकार रसात्मकता को प्राप्त कर परब्रह्मा को ग्रहण कर लेते हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण-सम्मिलन हेतु गोप-कन्याएँ कात्यायनी-व्रत कर रही थीं; उनकी उत्कट उत्कंठा के उद्रेक हेतु ही भगवान् कृष्ण ने उनके दुकूल चुराये। भगवत्-संस्पृष्ट दुकूल भगवत्-स्वरूप ही हो गए; जैसे निरावरण अग्नि-संस्पृष्ट सावरण अग्नि कोष्ठ निरावृत हो जाता है, वैसे ही निरावरण परब्रह्मा श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द परमानन्द संस्पृष्ट सावरण ब्रह्मा दुकूल भी निरावरण ब्रहा्रस्वरूप हो गए; उन निरावरण ब्रह्मा संशिलष्ट दुकूलों को पुनः धारण करने पर गोप–कन्याओं में भी निरावरण–ब्रह्मा से एकरूपता, तादात्म्य का आविर्भाव हुआ। रासलीला का प्रारम्भ ही वेणु-वादन से होता है। ‘तवोद्गीततमोहिताः’ वेणुगीत से मोहित होकर ही गोपांगनायें कृष्ण-सम्मिलन के लिए आतुर हो उठीं। वेणु-गीत-पीयूष- की भी नाद, गीत एवं रवभेद से तीन विभिन्न कोटियाँ हैं; वेणु-नाद अव्यक्त शब्द हैः ‘शक्रशर्वपरमेष्ठिपुरोगाः कश्मलं ययुरनिश्चिततत्त्वाः’[1] शर्व, शक्र परमेष्ठि आदि देव-गण भी वेणुनाद तत्त्व का निश्चय नहीं कर पाते अतः उसके श्रवण से कश्मल, त्यामोह को प्राप्त हो जाते हैं, मूर्च्छित हो जाते हैं। ‘व्योमयानवनिताः सह सिद्धैविस्मितास्तदुपधार्य सलज्जाः। वृन्दावन-धाम के वृक्ष-लता गुल्मादिक भी इस दिव्य वेणु-नाद का अनुभव कर भगवत्-क्रीड़ा-विहार के आस्पद बन जाते हैं। वेणु-रव अत्यन्त अन्तरंग है। ‘रश्च वश्च अनयोः समाहारो रवं’ रं अग्नि-बीज है; वं अमृत-बीज है; विप्रलम्भात्मक संयोगात्मक उभयविध एककालावच्छेदेन उद्बुद्ध श्रृंगार-रस ही ‘रव’ है। ‘गीत’ देव-भोग्य अधर सुधा है। गीत में अक्षर स्पष्ट होते हैं। गोपांगंनाओं को प्रतीत होता कि परमात्मा श्रीकृष्ण ने अपने वेणु-गीत द्वारा भिन्न-भिन्न गोपिकाओं का नामोल्लेख कर सौन्दर्य–माधुर्य एवं गुण–गणों का गान करते हुए उनका आहवान किया। |