गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15अमरत्व की इच्छा करता हुआ, मोक्ष की इच्छा करता हुआ प्रत्यगात्मा को आवृत्तचक्षु होकर देखता है ‘आवृत्तचक्षुः आवृत्तानि निबद्धानि वश्यानि चक्षुरुपलक्षितानि सर्वाण्येव इन्द्रियाणि यस्य स आवृत्तचक्षुः’ जो सम्पूर्ण बाह्य इन्द्रियों को अवरुद्ध कर प्रत्यगात्मा को देखता है वही आवृत्तचक्षु है। प्रत्यमात्मा-दर्शन से इन्द्रियों में पंगुता आ जाती है, इन्द्रियों में पंगुता होने पर भी प्रत्यगात्मा-दर्शन में सुविधा होती है। ‘उदीक्षमाणानां मध्ये’ जो उत्कट उत्कंठा से आपके अनंत अखण्ड निर्विकार-स्वरूप को देखना चाहते हैं उनमें वही सर्वोत्कृष्ट है, अजड़ है, बुद्धि-मान् है; चतुर है, विवेकी है ‘यः पक्ष्माणि कृन्तति’ जो सम्पूर्ण इन्द्रियों को अवरुद्ध कर लेता है और ‘यावदर्थः स्यात्’ जितने के बिना प्रयोजन ही नहीं चले, जीवन ही नहीं चले उतने ही विषयों का उपयोग करता है। ‘अतः कविर्नामसु यावदर्थः स्यादप्रमत्तो व्यवसायबुद्धिः। अर्थात्, शब्दादि प्रपंच का अस्तित्व ही नहीं, जो कुछ है केवल मनोविकार है; नाममात्र पदार्थों से ‘यावदर्थो’ जितना आवश्यक हो, अल्पातिअल्प प्रयोजन हो उतना ही सम्बन्ध रखें; जैसे क्षुधादि-निवृत्ति के लिए भोजनादि ग्रहण, पिपासा निवृत्ति के लिए जल-ग्रहण, मार्ग-ज्ञान के लिए नेत्र आदि का उपयोग करते हुए भी भगवत-चरित्र श्रवणादिक की दृष्टि से सम्पूर्ण इन्द्रियों का उपयोग करना उचित है। अनिवार्य देह-यात्रा सम्बन्ध से इन्द्रियों का उपयोग करते हुए अन्य सम्पूर्ण प्रपंज से उनको अवरुद्ध करना कर्तव्य है। तदनन्तर अन्तस्तल में छिपी अत्यन्त खतरनाक वासना की निवृत्ति हेतु निरन्तर भगवत्-चिन्तन करना चाहिए। ‘तदपीशाङ्घ्रिसेवया’[2] भगवच्चरणारविन्द की सेवा से जो वासना-अवशेष है, पाप-वासना अवशेष है वह भी धीरे-धीरे क्षीण हो जाता है। अस्तु, इन्द्रियों के विषयाभिमुख्य को अवरुद्ध कर भगवद्-ध्यानादिपूर्वक श्रवण, मनन, निदिध्यासनादि द्वारा भगवत्-स्वरूप-साक्षात्कार के लिए प्रयास करते रहना चाहिए; सतत प्रयत्नशील रहने पर एक न एक दिन भगवत्साक्षात्कार अवश्य ही होता है। |